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एक बहु

मुस्कान कुमारी
गोपालगंज (बिहार)
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हर रोज सहती डाट सबकी
बस इतना ही बोलती है
गलती नही होगी अबकी
रात को जब सोती है
घर की याद उसे आती है
बहु भी किसी की बेटी है
लोगो को ये बात
समझ क्यों नही आती है।

रोज सुबह जल्दी उठती है
सुबह से काम कर करके
रात को थक कर सो जाती है
काम कर के हो जाती
उससे गलती है
तुम्हारी मां ने यही सिखाया
यही बात सबसे सुनती है
बहु भी किसी की बेटी है
ये बात समझ क्यों नही आती है।

अपने सपने को छोड़ कर
दूसरे के सपनो को पिरोती है
किसी और के सपने को लेकर
वो खुद परेशान रह जाती है
कभी हिम्मत नही करती है
अपने सपनो को कहने की
कह देती तो, हमारे घर की
बहुएं ये काम नही करती है
यही उसे सुनने को मिलती है
बहु भी किसी की बेटी है
ये बात समझ क्यों नही आती है।

सासु मां की ताने सुनती है
वो भी कुछ नहीं बोलते
जिनके लिए वो
सब छोड़ आई है
आखिरकार रोकर वो
मां को याद करती है
बहु भी किसी की बेटी है
लोगो को
ये बात समझ क्यों नही आती है।

शादी से पहले वो सोचती है
मां जैसी सास मिलेगी
पापा जैसा प्यार चाहती है
पर जाती वहां
अपने उस सपने को टूटते देखती है
बहु भी किसी के बेटी है
ये बात समझ क्यों नही आती है।

परिचय :- मुस्कान कुमारी
निवासी : गोपालगंज (बिहार)
शिक्षा : इंटर सेकेंडरी, सेंट्रल हिंदू गर्ल्स स्कूल वाराणसी

घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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