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एक राष्ट्र–एक चुनाव

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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विश्व में आज हमारा लोकतंत्र जितना स्थिर, स्थायी, मजबूत और परिपक्व हैं, उतना ही हमारा मतदाता भी परिपक्व होता जा रहा हैंI ऐसे में यह भी सोचना होगा कि क्या ‘एक राष्ट्र एक चुनाव‘ यह देश का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हैं या महत्वपूर्ण मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए एक और नया मुद्दा हमें परोसा जा रहा हैंI भले ही सारे राजनितिक दल और नेता पुरानी तरह से सोचते हो परन्तु वास्तविकता यह हैं कि तकनिकी विकास और सोशल मिडियाने मतदाताओं को परिपक्व किया हैं, इसका अंदाजा नेताओं को शायद नहीं हैं I पक्ष-विपक्ष के राजनितिक दलों के अपने अपने तर्क हो सकते हैं I परन्तु सत्ताधारी और विपक्ष वे ज्वलंत मुद्दे क्यों नहीं उठाते जो देश के सामने विकराल रूप से आज भी चुनौती दे रहे हैं I यह आश्चर्यजनक हैं कि राजनैतिक दल उनके ही द्वारा उठाये गए पुराने मुद्दों को अधूरा छोड़ते जाते हैं , और नए मुद्दों को उछालते रहते हैं और पुराने मुद्दों को मृतप्राय और कालबाह्य समझ लेते हैं I प्राथमिकता के आधार पर राष्ट्रीय मुद्दों का चयन होना चाहिए और उन्हें उनकी अंतिम परिणिति तक पहुचाया जाना चाहिए I विगत वर्षों में जो भी मुद्दे राजनैतिक दलों के द्वारा उठायें गए हैं आज वें किस स्थिति में हैं इसका विश्लेषण कौन करेगा ? उदहारण के लिए हम ७० वर्षों में काश्मीर समस्या का हल नहीं कर पायें हैं I तुष्टिकरण , आरक्षण , बेरोजगारी , अशिक्षा , महिलाओं पर अत्याचार , भाषाई विवाद , महंगाई , भ्रष्टाचार , बढ़ता प्रदुषण , सामाजिक और आर्थिक विषमताएं , राममंदिर निर्माण , बढ़ता घातक शहरीकरण, तीन तलाक , समान नागरिक संहिता , किसानो की कर्जमाफी , इत्यादि ऐसे भस्मासुरी मुद्दे थे जिनका लाभ विगत पचास वर्षों में सभी पक्षों ने समर्थन या विरोध करके लिया , लेकिन आज भी यें मुद्दे जीवित हैं और इन मुद्दों को सभी दलों ने अब अपने हाल पर छोड़ दिया हैं I और अब यह एक नया मुद्दा , जिस पर शायद अगले कई विधानसभा चुनावों की बिसात होगी I दरअसल तात्कालिक लाभ के लिए मतदाताओं को आभासीय जगत में विचरण करवाए जाने की एक प्रक्रिया निरंतर जारी हैं I

–अब एक राष्ट्र एक चुनाव मुद्दे को लिया जाय तो सरकार द्वारा सर्व दलीय बैठक में एक पेनल बनाया गया हैं जो इस बाबद एक निश्चित समयावधि में अपनी रिपोर्ट देगा परन्तु उसी समय चुनाव आयोग ने वर्तमान में यह संभव नहीं हैं ऐसा बताया हैं , पर मिडिया में इस पर उत्तेजित बहस जारी हो चुकी हैं और पुराने मुद्दों को दफनायें जाने की प्रक्रिया भी I दरअसल यह समझने की आवश्यकता हैं कि राष्ट्रीय मुद्दे अलग हैं , क्षेत्रीय मुद्दे अलग हैं और यहाँ तक कि स्थानीय मुद्दे भी अलग होते हैं I मतदाता अब इतना परिपक्व तो हो ही चुका हैं कि वह इन मुद्दों को अलग अलग कर के विचार करता हैं और यह मध्यप्रदेश , राजस्थान और हरियाणा के विधानसभा चुनाव और तत्पश्चात लोकसभा चुनाव ने साबित कर दिया है I दिल्ली में भी ७० में से ६७ विधानसभा जीतने वाले ‘ आप ‘ दल को मतदाता लोकसभा में देखना नहीं चाहते I इससे मतदाताओं की मानसिकता का तो पता चलता हैं , पर फिर किस आधार पर हम एक राष्ट्र एक चुनाव का मुद्दा आगे बढ़ा सकते हैं ? राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय मुद्दे निश्चित ही सर्वोपरि होने चाहियें पर फेडरल (भारतीय गणराज) व्यवस्था में आखिर क्षेत्रियता और क्षेत्रीय मुद्दे भी तो महत्वपूर्ण होते हैं I काश्मीर की समस्या तामिलनाडू को प्रभावित नहीं करती और इसी तरह तामिलनाडू की समस्या (अगर कोई हैं) का कश्मीर समस्या से कोई लेनादेना नहीं हैं I हिंदी ( त्रिभाषा फार्मूला ) भाषा का मुद्दा हमारे लिए राष्ट्रीय मुद्दा हो सकता हैं पर दक्षिण के राज्यों में नहीं I एक राष्ट्र और एक चुनाव अगर होते हैं तो मतदाता किस तरह व्यक्त हो सकता हैं ? अगर स्थानीय मुद्दा उसके लिए प्रभावित करता हैं तो वह राष्ट्रीय मुद्दों को गौण समझेगा और वह राष्ट्रीय मुद्दों पर विचार ही नहीं करेगा और ऐसी स्थिति में तब यह राष्ट्रीय समरसता के लिए संकट होगा , और एक राष्ट्र एक चुनाव के सिधांतों को भी प्रभावित करेगा I १९६७ तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव जो एक साथ हुए हैं , और उनका दाखला इस मुद्दे के लिए बड़े जोरशोर से उठाया जा रहा हैं , तो यह समझने की जरुरत हैं कि वह लोकतंत्र का शैशव काल था , आबादी बहुत कम थी , व्यवस्था करना आसान था , और सबसे महत्वपूर्ण यह था कि मतदाताओं में भले ही जागरूकता नहीं थी पर व्यवस्था के प्रति विश्वास था , और लोकतंत्र से उनकी अपेक्षाएं भी बहुत कम थी I और आज क्या हैं ? ७० वर्षों के बाद भी हम अभी तक EVM या पर्ची पर ही अटके हुए हैं I
-– एक राष्ट्र एक चुनाव के लिए आर्थिक गणित भी बताया जाता हैं , परन्तु यह याद रहें कि जब हम एक लाख करोड़ रुपये ‘ बुलेट ट्रेन ‘ के लिए खर्च कर सकते हैं , घाटे में चल रहे सभी सरकारी उद्योग एवं मेट्रो ट्रेनों का लाखों करोडों रुपयों का नुक्सान सहन करने की क्षमता रखते हैं तो चुनाव का खर्च हमें क्यों असहनीय लगता हैं ? खर्च ही बचाना हैं तो राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों को ख़त्म किया जा सकता हैं जिनका अब कोई महत्व ही नहीं बचा हैं I इसके बदले लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की सीटे बढाई जानी चाहियें I एक और बात हैं , आज जब १०० रूपये में एक माह तक अनलिमिटेड कॉल की सुविधा हैं तो , ऐसे में सांसदों को १५००० रुपये मासिक टेलीफोन भत्ता दिया जाना हास्यास्पद हैं I कमोबेश यहीं हाल विधायकों और पार्षदों का भी हैं I जितनी मुस्तैदी से मोदीजी काले धन पर हमला कर रहें हैं , उतनी मुस्तैदी सांसदों के भत्तों के लिए भी दिखाएँ I लोकसभा चुनाव के दौरान ४००० करोड़ रुपये जप्त किये गए हैं , इसके अलावा सोना-चांदी और आश्चर्य हैं कि करोड़ों रुपयों की शराब भी जप्त हुई हैं , हमारा दुर्भाग्य हैं कि इस तरह के मुद्दे मतदाताओं को उद्वेलित नहीं करते ?
— क्षेत्रीय दलों का ‘ एक राष्ट्र एक चुनाव ‘ इस मुद्दे का विरोध करना स्वाभाविक ही हैं , क्यों कि उनका आधार ही क्षेत्रियता हैं , और उनकी राजनीति के उद्देश्य भी क्षेत्रीय ही हैं I इसीलिए राष्ट्रीय दल और क्षेत्रीय दलों का साथ भी सीमित स्वार्थ के लिए ही होता हैं I आज यहाँ तो कल वहां की राजनीति में कल का मुद्दा आज दफनाना ही होता हैं I इस वक्त बंगाल में तृणमूल कांग्रेस में भगदड़ मची हुई हैं , अब कल तक उनके जो विधायक और पार्षद अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का राग अलापते थे आज वे भाजपा में अपने आप को निश्चित ही अस्वाभाविक महसूस कर रहे होंगे I अत: सत्ता से अधिक मुद्दों के प्रति निष्ठा भी महत्वपूर्ण होती हैं यह हमारे राजनैतिक दल कब समझेंगे ? और कब समझेगा व्यक्तिनिष्ठ मतदाता ?
–स्थानीय मुद्दे लेकर राष्ट्रीय चुनाव या राष्ट्रीय मुद्दे लेकर स्थानीय चुनाव में उम्मीदवार के मैदान में उतरने से मतदाता भ्रमित हो जाता हैं , जिसका नतीजा यह होता हैं की कभी कभी ऐसे उम्मीदवार भी चुनाव जीत जाते हैं जिनकी राष्ट्रीय वैचारिकता ही नहीं होती , इसलिए वें राष्ट्रीय स्तर पर भी स्थानिक मुद्दे ही उठाते रहते हैं I आजमखान या औबेसी इसके बेहतर उदहारण हैं I
–हमारे यहाँ सभी जाती धर्मो के लिए मुद्दे भी अलग अलग दिखाएँ जाते और अनेक मुद्दे प्रतीकात्मक बनाए जाते हैं , और उनका प्रचार भी बहुत किया जाता हैं I गंगा में स्नान करने का प्रचार करना , मंदिर-मस्जिद में जाना , विशिष्ट वेशभूषा पहनना , टोपियाँ पहनना , इफ्तार की पार्टी , दलितों के यहाँ भोजन करना आदि, नेताओं का ऐसा बर्ताव होता हैं कि जिनका मुद्दोंसे तो कोई ताल्लुक ही नहीं होता पर नेताओं का यह व्यवहार राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों का महत्त्व कम कर देता हैं और इस कारण टिव्ही पर गैर जरुरी मुद्दों पर चर्चा होती रहती हैं I
–अंत में यह कि इसे चुनाव का मुद्दा ना बनाया जाय I लोकसभा के चुनाव अलग हो और जरुरत हो तो सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव भी एक साथ हो पर लोकसभा के चुनावों से अलग हो I इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर सभी दलों को समान अवसर प्राप्त हो सके एवं राष्ट्रीय मुद्दे और स्थानीय मुद्दों की घालमेल नहीं होगी I खर्च भी कम होगा I एक और महत्वपूर्ण यह कि विधानसभा और लोकसभा में अपनी अवधि में रिक्त हुए स्थान पर उपचुनाव नहीं करवाएं जाना चाहिए , इसकी कोई आवश्यकता ही नहीं हैं और इससे कोई लाभ भी नहीं होता I देखें हमारे नेता क्या करते हैं ?

लेखक परिचय :-  विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.

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