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लोकतंत्रीय तानाशाही

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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भीड़तंत्र की, ‘लोकतंत्रीय तानाशाही’ पढ़कर और सुनकर अनेक लोग हैरान हो सकते हैं और उन्हें यह विषय हास्यास्पद भी लग सकता हैं, परन्तु वस्तुस्थिति यह हैं कि हम लोकतंत्रीय तानाशाही की ओर बढ़ रहें हैं, जहाँ किन्ही चयनित या निर्वाचित कुछ ख़ास व्यक्तियों को व्यवस्था रूपी तंत्र निर्णय लेने के सारे अधिकार सौप देती हैंI एक दो व्यक्ति, चाहे घर हो या बाहर, या हो राष्ट्र में, योग्य निर्णय लेने की असीम एवं निष्पक्ष क्षमता नहीं रख सकते, बल्कि यह कहें कि सुचारू व्यवस्था के लिए और नित नयी समस्याओं के समाधान हेतु किसी एक या दो व्यक्तियों को योग्य और सक्षम निर्णय लेना संभव ही नहीं हो सकता I लोकतंत्रीय तानाशाही में सलाहकार भी एक वृत्त और उसकी परिधि की चकाचौंध से भ्रमित हो उन्हें योग्य सलाह देने का साहस ही नहीं जुटा पाते, क्योंकि उन्हें हमेशा यह भय सताता रहता हैं कि उनकी सलाह कही उन्हें दंड का भागी ना बना दे I पश्चिम बंगाल का उदहारण हमारे सामने हैं I नेतृत्व की असहिष्णुता और संकुचित विचारधारा, और यहाँ तक कि संकुचित मानसिकता और अविवेकी स्वार्थ ने हमें सत्तर वर्षों में यहाँ लाकर खडा किया हैं I व्यक्ति को पहले स्वीकार्य बनाना, फिर उसे ब्रांड बनाना, फिर उसे ईश्वर बनाना, फिर उसकी पूजा करने को बाध्य करना, राजनीति के प्रबंधतंत्र में प्रचार की यह प्रक्रिया सभी दलोंने अपनाई हैं I अमेरिका में भी आप इस प्रक्रिया से किसी की कोई स्वीकार्यता और लोकप्रियता निर्मित नहीं कर सकते जितनी हमारे देश में होती आई हैं I मतदाता तो सिमित स्वार्थवश हमेशा भ्रमित ही रहता हैं, और उसीका परिणाम हैं कि कभी वह मिलीजुली लंगड़ी सरकार बनवाता हैं ताकि वह सही तरीके से काम ना कर सके, और कभी वह भावनिक हो कर किसी दल विशेष को नहीं बल्कि, इंदिरा गांधी, राजीव गाँधी, और नरेंद्र मोदी को उश्रुंखल और निर्मम बहुमत दे देता हैं I याद रहें दुनिया में सिर्फ भारत में आयाराम गयाराम की फसल लहलहाती हैं I लोकतंत्रीय तानाशाही में विचारधारा में निष्ठा, या समाज या राष्ट्र में निष्ठा ना होकर व्यक्ति में निष्ठा होना ही दुर्भाग्य हैं इस देश का I इधर पश्चिम बंगाल में जिस रफ़्तार से पार्षदों को और विधायकों को केशरिया रंग में रंगा जा रहा हैं उससे देश आश्चर्यचकित हैं I भले ही भाजपा की इससे बदनामी हो रही हो और अन्य दल भाजपा की पार्षद/विधायक/सांसद तोडू प्रतिभा और क्षमता से भयभीत हो पर इसे भी तो हम लोकतंत्रीय तानाशाही कह ही सकते हैं I और हैरानी इस बात की हैं कि डूबते हुए जहाज में चूहों में भगदड़ सी मची हैं और वें सत्ता की मलाई खाने को बेचैन भी हैं I लोकतंत्रीय तानाशाही के बढ़ते कदम, यह साबित करते हैं कि मतदाता समेत सबकी निष्ठा सिर्फ सत्ता में सिमट कर रह जाती हैं I और वह परिवार तक को आमने सामने खड़ा कर देती हैं, और उसीका परिणाम देखिये, ४० वर्षो से कांग्रेस के निष्ठावान और विधानसभा में निर्वाचित नेता प्रतिपक्ष विखे पाटील एक सुनहरी सत्ता की चौखट पर ठीक महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले अचानक भाजपा सरकार में काबिना मंत्री बन जाते हैं I और जलगाव के महाराष्ट्र के कद्दावर नेता और २०१६ तक के काबिना मंत्री एकनाथ खडसे जिन्होंने महाराष्ट्र में भाजपा को यहाँ तक लाया वें अभी भी दुबारा मंत्री बनने की राह देख रहे हैं I अचानक फ़िल्मी कलकारों को निष्ठावान कार्यकर्ताओं पर तरजीह देना और उन्हें ‘ यस सर ‘ बनाना भी लोकतंत्रीय तानाशाही का ही हिस्सा हैं I और कोई भी दल इससे बचा नहीं हैं I परिवर्तन अवश्यंभावी होता हैं और इसमें में पीढ़ियों का संघर्ष भी स्वाभाविक ही हैं , और यह होता भी आया हैं I पर राजकीय दलों में नेतृत्व के लिए व्यक्तिगत संघर्ष अगर वह निजी वैमनस्यता में बदलता हैं तो यह लोकतंत्र के लिए स्वस्थ नहीं कहाँ जा सकता और इसे भी हम लोकतंत्रीय तानाशाही की ओर बढ़ते कदम कह सकते हैं जहाँ विरोध के लिए कोई सहिष्णुता नहीं हैं I
बिना योग्यता के, बिना स्वीकार्यता के , थोपे हुए नेतृत्व के कारण आज इस लोकतंत्र में विपक्ष दूर दूर तक दिखाई नहीं देता, ऐसे में लोकतंत्रीय तानाशाही पनपने के भरपूर साधन उपलब्ध रहते हैं I भारतीय लोकतंत्र का इतिहास बड़ी बारीकी से यह अध्ययन कर रहा हैं I राजनितिक दलों के उदय और अस्त के लिए नेतृत्व ही तो कारण होता हैं I किसी समय का साम्यवाद, पूंजीवाद और समाजवाद आज कालबाह्य है I आज सिर्फ सत्तावाद ही प्रमुख हैं I फिर वह रूस हो, चीन हो, अमेरिका हो या के भारत हो, सत्ता प्राप्ति ही प्रमुख ध्येय होता हैं I उत्तर कोरिया में हम इसे खालिस तानाशाही कह सकते हैं, और अन्य देशों में लोकतंत्र का स्वरूप . किसी समय की स्वतन्त्र पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, अनेक भागों में बंटे हुए समाजवादी, आप, यहाँ तक कि कई भागों में बटी हुई कांग्रेस, अलग अलग नामपट्टों के साथ अपनी अलग दुकान खोले विभिन्न दलों को आखिर स्थायित्व क्यों नहीं मिलता ? इसके जड़ में अक्षम और स्वार्थी नेतृत्व ही होता हैं I अपने अन्तरविरोधों में मस्त और व्यस्त, आज विपक्ष में इतना साहस ही नहीं बचा कि वें सत्ता पक्ष की किसी गलती का विरोध कर सके I इसका परिणाम यह होता हैं कि अनेक नेता सत्तापक्ष का विरोध करना अपना समय बर्बाद करना समझते हैं I उदहारण के लिए पश्चिम बंगाल में हो रहे घमासान में कोई भी विरोधी दल पक्ष या विपक्ष में बोलने के लिए तैयार ही नहीं है I यहीं कारण हैं कि लोकतंत्र अपनी तानाशाही की ओर स्वछन्दता से अग्रसर होता जाता हैं I
लोकतंत्रीय तानाशाही में संवैधानिक संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं I समर्थक और विरोधक दोनों ही इनकी कमजोरियां का भरपूर लाभ लेते हैं I ऐसे अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं जहाँ संवैधानिक संस्थाओं की असहाय स्थिति सहज दिखाई दे जाती हैं , वरन कोई कारण नहीं हैं कि हम राममंदिर के जमीन के टुकड़े का विवाद १०० वर्षों में भी नहीं निपटा पाए ? आस्था , श्रद्धा और निष्ठा के सवाल अलग हैं , और कानून के सवाल अलग हैं और इन दोनों समानांतर पटरियों पर चलते हुए समर्थक और विरोधी राजनितिक दल लोकतंत्र की शर्त और लोकतंत्र के मुद्दे भूल जाते हैं I
एक और महत्वपूर्ण मुद्दा हैं भ्रष्टाचार . लोकतंत्रीय तानाशाही के बगैर भ्रष्टाचार पनप ही नहीं सकता . आखिर सत्ताधीशों का दबाव ही तो भ्रष्टाचार पनपाता हैं I इसका सीधा अर्थ यह हैं कि लोकतंत्रीय व्यवस्था ने जिनके हाथों में सत्ता सौपी हैं वें मठाधीश हो गए हैं और वे बिना किसी प्रतिरोध के लाखों करोडो रुपयों का भ्रष्टाचार कर सकते हैं I एक उदहारण दिया जा सकता हैं , हालाकि किसी भी द्रष्टि से इस उदहारण को उचित नहीं कहा जा सकता , फिर भी इसलिए कि हमारे यहाँ लोकतंत्रीय तानाशाही में लाखों करोडों का भ्रष्टाचार बिना डर के होता हैं , ‘ हमारा कोई क्या बिगाड़ लेगा ‘ यहीं भावना रहती हैं और उधर उत्तर कोरिया में सनकी राष्ट्राध्यक्ष ने अपने एक विदेश अधिकारी को इसलिए गोली से उड़ा दिया कि अमेरिका के साथ उत्तर कोरिया की वार्ता असफल हो गयी I

लेखक परिचय :-  विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.

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