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मेहरबाँ बनता गया

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मुनीब मुज़फ्फ़रपुरी

जिस ज़मीं पर पाँव रखा आस्माँ बनता गया
जिस ने मेहनत की हमेशा कामरां बनता गया

चाँद एक बादल के टुकरे में छुपा बैठा रहा
दिल का मेरे दर्द सब दर्द ए निहाँ बनता गया

सब के सब मानूस थे बारिश हवा या धूप हो
उसने जिस को भी कहा सब साइबाँ बनता गया

जो भी अपने थे मेरे सब छोड़ के जाने लगे
सब से कट कट के मेरा अपना जहाँ बनता गया

क्या हुनर थे मुझमे हाँ मैं जंग कैसे जीत ता
खेल क़िस्मत का हमेशा मेहरबाँ बनता गया

लेखक परिचय :
नाम: मुनीब मुजफ्फरपुरी
उर्दू अंग्रेजी और हिंदी के कवि
मिथिला विश्वविद्यालय में अध्ययनरत, (भूगोल के छात्र)।

निवासी :- मुजफ्फरपुर

कविता में पुरस्कार :-
१: राष्ट्रीय साहित्य सम्मान
२: सलीम जाफ़री अवार्ड
३: महादेवी वर्मा सम्मान
४: ख़ुसरो सम्मान
५: बाबा नागार्जुना अवार्ड
६: मुनीर नियाज़ी अवार्ड

आने वाली किताबें :-
१: माँ और मौसी (उर्दू और हिंदी ग़ज़ल)
२: रिदम की दुनिया (अंग्रेजी कविता)
३: भूत नाथ रिटर्न (अंग्रेजी उपन्यास)


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