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गुरु की महिमा अगर ना होती

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रचयिता : दीपक्रांति पांडेय

मेरा मार्ग था कांटों पूर्ण,
जीवन मेरा था अपूर्ण,
मार्ग था मेरा कितना छोटा
मैं यों थी ज्यों सिक्का खोटा।
राहों में भटक सी जाती,
मेरी कीमत कुछ ना होती।
मिलता ना सानिध्य आपका,
दुनियां बस ताने देती।
गुरुवर आपको करूं प्रणाम,
मिला मुझे जो भी सम्मान,
तुच्छ था मेरा सारा ज्ञान,
मै थी मेंढक कूप समान।
जीवन मेरा व्यर्थ हीं जाता,
ज्ञान सृजन ना होने पाता।
महिमा अगर कहीं ना होती,
बिन प्रकाश सम मैं ज्योती।
मातु-पिता से जीवन पाया,
अपनों से हर स्नेह कमाया,
जीवन का हर मंत्र बताया,
सच्चा ज्ञान आपसे पाया।
बदली मेरी हर एक काया,
पूर्ण ज्ञान है आपसे आया।
गद-गद हो मैं वंदन करती,
ह्रदय से अभिनंदन करती।
नित नूतन उमंग है मिलती,
धूल चरण की माथे धरती।
हुआ सार्थक जीवन मेरा,
गुरु वंदन मैं नित्य हीं करती।
अंधकार जीवन से हर ते,
जीवन ज्योत उजागर कर दे।
यह जीवन था निसप्राण,
मिला आपसे हीं हर ज्ञान।
तरासने वाले आप थे मुझे,
मेरा अब तक  मोल ना था,
धन्य हुई गुरु आपको पाकर,
अंततः यही बस बोलना था।

लेखिका परिचय :-  दीपक्रांति पांडेय रीवा मध्य प्रदेश


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