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बोलता कश्मीर

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रचयिता : परवेज़ इक़बाल

-नज़्म-

बोलती हैं सलाखों पे
भिंची गर्म मुट्ठियाँ
सुने पड़े डाकखानों में
लगे लिफाफों के ढ़ेर.
और मोबाइल के
इनबॉक्स में पड़ी
लाखों चिट्ठियां…
क्या सच में आज़ाद हूँ मैं….?
सन्नाटे के शोर से
फटती हैं कानों के रगें
खामोश लब और सुर्ख आंखें
धधकते सीने पस्त बांहें…
सर्द हवा में भी है
एक अजीब सी तपिश
सवाल करती है चीखते दिल से
यह खामोश सी खलिश
क्या सच में आज़ाद हूँ मैं….?
पूछती है बर्फ, चिनारों को
अपनी सफेदी दिखा कर
मुझे रोंद्ता नहीं कियूं
कोई अब पहाड़ पर आकर…
कहते हैं थपेड़े पानी के
डल के किनारों से जाकर..
कोई तो खामोशी तोड़ो
शिकारों से गीत गाकर…
उतारो पानी मे
सूखी पड़ी पतवारों को
कोई तो आबाद करो
इन सूने शिकारों को….
हाँ आज अफसोस नहीं
तुम्हें मेरे हाल का
लेकिन देना पड़ेगा जवाब कभी
तुम्हें भी मेरे सवाल का
ये नफरत हरगिज़ न
खीर का ज़ायका बढ़ाएगी…
दूध पर रंगत तो
केसर से ही आएगी…
बच्ची को कौन क्या कहकर बहलाएगा
की कश्मीर से इस बार शॉल वाला
अखरोट न लाएगा…
दोगे जवाब क्या,
नानी दादी के सवालों का
आने वाला है फिर मौसम
पश्मीना शॉलों का….
चखी हैं ख़ूबनियाँ तुमने
अखरोट की दुकानों में
केसर के खेत मे
और सेब के बागों में
ट्यूलिप के फूलों में
ऊंचे चिनारों में..
गुनगुनाए हैं कई गीत तुमने
डल पर डोलते शिकारों में
भूल गए सब या
कुछ कुछ याद हूँ मैं…
क्या सच में आज़ाद हूँ मैं….?
जो मैं आज़ाद हूँ तो
कियूं जश्न मनाने नहीं देते..?
करके आज़ाद मेरे लबों को
कियूं तराने नहीं गाने देते..?
पूजते हो तुम तो
नारी को देवी की तरह
फिर मेरी बेटी
कियूं लगती नहीं
तुम्हें बेटी की तरह…
उसके लिए दिल में
हवस की चाहत कियूं है..
मनाते हो कियूं जश्न
मेरे खून आलूद होने का
मेरे बच्चों से तुम्हें
इतनी नफरत कियूं है…
जवाब मुझको देदो
दे सकते हो अगर…
धरती अपनी है तो
फिर कियूं पराया है बशर…
संगीनों के साये में
कब तरक्की आती है…
गोलियों के शोर में चिड़िया
कहाँ गीत अमन के गाती है…
अपना जो बनाना है तो
पहले अपनाओ मुझे….
गोलियों के शोर से दूर,
बैठ कर किसी चिनार के नीचे
कुछ मेरी सुनो
कुछ अपनी सुनाओ मुझे…
चलो मेरे साथ दूर
किसी बर्फ के मैदान में
किसी पहाड़ पर मुलाकात करो..
डल झील के किनारे पर मिलो
किसी शिकारे में बात करो…
ये धरती ही नहीं
मैं भी तुम्हारा हूँ
ये जताओ तो सही…
मैं भी अहम हूँ तुम्हारे लिए
तुम्हें ज़रुरत है मेरी
यह बताओ तो सही…..
बगैर मेरे अगर तुम उदास हो
तो तुमसे दूर रहकर
कहाँ शाद हूँ मैं….
क्या सच में आज़ाद हूँ मैं….?

 

लेखक परिचय :- परवेज़ इक़बाल ४५ वर्ष
निवासी :-  इंदौर मध्यप्रदेश
२० साल से पत्रकारिता में सक्रिय
कविता, कथा,लघुकथा और उपन्यास लेखन, कथा-पटकथा लेखन
२ सीरियल और १ टेलीफिल्म
भोपाल दूरदर्शन से प्रसारित


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