लोकगीत मानव ह्रदय की सरल, सहज एवम नैसर्गिक अभिव्यक्ति है। जिसमे भाव, भाषा और छंद की नियमितता से मुक्त रहकर स्वच्छंद रूप से निःसृत होने लगते है। इन सहज-स्वाभाविक गीतों के मूल में सम्पूर्ण विश्व की प्रतिपल घटित एवम परिवर्तित परिस्थितियां ही प्रेरणा रूप में विद्यमान है।
लोकगीत भावों की अभिव्यक्ति की एक विधि है। लोकगीतों की मूल प्रेरणा वही है जो अभिव्यक्ति की अन्य विधाओं की है। मालवी लोकगीतों की पृष्ठभूमि के रूप में भी अभिव्यक्ति की इन मूल प्रेरणाओं को स्वीकार किया जा सकता है। ये है- सामाजिक,धार्मिक आर्थिक, राजनैतिक, पारिवारिक आदि परिस्थितियां। इसमे हम केवल सामाजिक परिस्थितियों पर ही हम मंथन करेंगे…………..
समाज, मानव द्वारा निर्धारित व स्वीकृत वह जीवन पद्धति है जिसके द्वारा प्रत्येक मनुष्य जीवन पर्यंत संचालित होता है। कभी लोक समाज मे और कभी समाज-लोक में स्था नांतरित होता है। ‘लोक’ समाज का अभिव्याप्त भाव रूप है। उसमें समाज और असमाज दोनों तत्व साथ-साथ विद्यमान रहते है।
‘लोकसाहित्य’का रचयिता सामाजिक चेतना सम्पन्न प्राणी होता है। जो अपनी वाणी द्वारा समाज मे व्याप्त समस्त राग रागामयी चेष्टाओं क्रिया-प्रतिक्रियाओं एवम भावनाओं को मुखरित करता है।
लोकसाहित्य के निर्माण में समाज एक विशाल पृष्ठ भूमि के रूप में कार्य करता है।समाज के प्रांगण में प्रफुल्लित-विकसित सम्पूर्ण मानवीय भावनाएं, विश्वास और मान्यताएं, परम्पराएं और रीतियाँ लोक साहित्य की प्रेरक परिस्थितियां है। मनुष्य अपने जन्म काल से लेकर मृत्युकाल तक सामाजिकता के सूत्र में बंधा रहता है। वह समाज के नियमानुशासन में बंधकर परंपरागत विश्वास एवम मान्यताओं के अनुकूल आचरण करता है। लोक साहित्य कार के रूप में भी वह अपने समाज मे व्याप्त विभिन्न तत्वों से अनुप्राणित होता है। यही कारण है कि मालवी लोकगीतों में विभिन्न सामाजिक प्रथाओं, रीतियों एवम परम्पराओं के उल्लेख प्राप्त होते है।
भारतीय समाज की भावना अर्थ, धर्म, काम एवम मोक्ष आदि तत्वों पर आधारित है । वर्ण-भेद, आश्रम-व्यवस्था, वर्ग-गत कार्य विभाजन, विभिन्न संस्कारों का नियोजन ये समस्त सिद्धांत मानवीय आचरण की शुद्धि एवम परिमार्जन के निमित्त बनाये गए है और सबका उद्देश्य मनुष्य को चरमोत्कर्ष की प्राप्ति में संलग्न रखना है। गृह्य सूत्र में चालीस संस्कारों की गणना की गई है पर मुख्य रूप से पांच प्रकार के संस्कारों का समाज मे प्रचलन है–प्राग जन्म संस्कार, जन्म संस्कार, यज्ञोपवित संस्कार, विवाह संस्कार एवं अंत्येष्टि संस्कार।
संस्कारों के अनुसार ही लोकगीतों के विविध रूपों का निर्माण हुआ है। उदाहरणार्थ–विवाह, गोद-भराई के गीत, लोरी, जच्चा, यज्ञोपवित, तेल व मंडप के गीत, शोक, जेवनार, बिदाई गीत आदि। इस प्रकार हम देखते है कि समाज मे उपस्थित प्रत्येक अवसर, घटना एवम क्रिया मालवी लोकगीतों के लिए अनुकूल भूमि का निर्माण करती है।
यहां हम दो संस्कारों के गीतों को देखेंगे……
(१) विवाह संस्कार-शीतला
व गणेश पूजन से होती है शुरुआत- गणेश जी को निमंत्रण देते हुए गीत की शुरुआत की जाती है। (कुछ अन्तरे ही ले पाएंगे)
(१)”चालो हो गजानन्द जोशी क्यां चालां,
तो आछा-आछा लगन लिखावां।
गजानन्द कोठारी गादी पे नोबत बाजे,
इंदरगढ़ गाजे न झीणी-झीणी झालर बाजे।
(२) तम तो बेगा-बेगा आओ गणेश,
के तम बिन घड़ी नी सेरे।
तमारी सूंड जो मोटी गणेश,
के वासक नाग झूले।
तमारा सीस जो मोटा गणेश,
के सवामन सिंदूर चढ़े।
हल्दी–हल्दी गांठ-गठीली, हल्दी बहुत रंगीली,
निबजे हो बालू रेत में।
कोल्या–म्हारो छोटो सो लाडो कोल्या जीमे रे,
यां तो मेले बैठी उषा बेन टुंग रई रे।
म्हारा बाजोट्या हेटे छिपी रीजे रे,
या पड़तो सो कोल्या झेली रे।
सूरज देव आमंत्रण गीत–पांच सुपारी ने पान का हो बिड़ला,
तम घर नो तो सूरज जी बेगा आवजो।
ममेरा–बीरा रमा-झमा से महारया आजो,
बीरा थे भी आजो ने भावज लाजो,
सिरदार भतीजा तारा ला जो रे,
बीरा रमा-झमा…..
बीरा माथा ने भम्मर घड़जो,म्हारे नयनी रतन जड़ाओं, रे बीरा….
म्हारे गला कंठी घड़ाजो,म्हारा हाथा में भुजबन्द घडाजो, रे बीरा…..
तेल चढ़ाना–इतो ग्यारसीलाल जी पूछे बाटडली,
इतरे तेल की बेल चढ़ा रसिया।
इतो संतोषजी पूछे बाट ड़ली,
इतो तेल की बेल चढ़ा रसिया।
घुड़चढ़ी–बनाजी थे तो घोड़ी चढ़या मज आधी रात चढ्या घोड़ी,सुती नगरी जगई।
बारात–नो सो की गाड़ी दरवाजे खड़ी रे,
आज मेरा बन्ना ससुराल चला रे।
बनड़ी के यहां सुहाग गीत-
बनड़ी चली दादाजी दरबार, दो म्हारी दादी अमर सुहाग।
ससुराल पक्ष से सुहाग की वस्तुएं आती है तब उनका बड़ा आदर सम्मान किया जाता है–बेटमा नगर से बिड़ला हो आया,
तो लाया म्हारा गौतमपुरा का सेर,
सुहाग का बिड़ला हो आया।
बेटी बिदाई का माहौल–
ओ सासू दुःखड़लो मति दीजे–२
ओ म्हारी करकरिया की बेटी,
ओ म्हारी रई हो आंगन को रमत्यों।
ओ म्हारे पापड़ दई ने परणाई, ओ म्हारे लाड़ दई ने लड़ाई,ओ सासु दुः…….
बिदाई गीत–नो लाख की मोटर दरवाजे खड़ी रे,
आज मेरी बन्नी ससुराल चली रे।
भैया भी रोये-भाभी भी रोये,
संगी सहेलियां छोड़ चली रे।
थोड़ा हँस ले– बन्ना गीत-लाड़ा कैसा भी हो,फिर भी गीत तारीफ में ही गाए जाते है–यहां लाडे की वास्तविक स्थिति अनुसार गीत देखिये-
बना सा थारी नाक घणी टपके हो
बनासा नाक घणी टपके,
आंखों में तो गीचोड़ा भरया ने मुंडा से लार घणी टपके।
आंख्यों जण के भैस भूराली ने डोल्या व्हय ग्या लाल,
मुंडो थाको एसो लागे जैसे नूरिया खाल।
खाल में जाला घना लटके हो,बनासा जाला घना टपके
बनासा थारी नाक घणी टपके……हो….
आँखा में तो गीचोड़ा भरया ने मुंडा से लार घणी टपके।
गाली–बारात आगमन व बिदाई के बीच ब्यान जी बेयजी को पुकारती है,अगर बेयजी बोल दिए तो गलियों की भरमार भी हो जाती है।
#बोली उठ्यो-बोली उठ्यो,
बोली उठ्यो रे,
जीजी छिनाल को बोली उठ्यो रे।
भूख लागी-भूख लागी,भूख लागी रे,
जीजी छिनाल का के टुकड़ो डालो रे…..
बेयजी तो अनज्ञा-धंग्या नार मिली अधगेली महाराज, कुंवारा क्यों नी रय गया हो।
#अंत मे मृत्यु संस्कार का गीत#महिलाएं पुरुष की मृत्यु पर शोक गीत में भाव को उद्दीप्त कर रही है–
लाडला तम चड़ो अणि घोड़ी ने बाग मरोड़ी,
लक्कड़ की घोड़ी ने मोया की डोरी,
चार जणा मिल तोकी ने चाल्या,
ऊपर जगन्नाथी ओढ़ी।
पइसा का तो नाडा लाया और मोया की डोरी,
चार जणा तोकी ने चाल्या, पीछे हांडी फोड़ी।