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पिता

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रचयिता : संगीता केस्वानी

निशब्द पर्दे की ओट से झांकते है पिता,
नन्ही हथेलियाँ थाम बादलों के पार ले जाते है पिता,
ना लोरी की थपकियों में,
न रोटी के कोर में,
ना इंतेज़ार की टकटकी में होते है पिता,
की थाली के व्यंजनों को सजाने में व्यस्त होते है पिता,
न आरती के दिये में,
न रोली में, ना तावीज़ में होते है पिता,
ना ममता में, ना वात्सल्य के स्पर्श में जुड़े होते है पिता,
पहुंचाए मुझे अर्श पे इसके जिम्मेदार होते है पिता,
तन कोख से जोड़े, लहू से सींचे है माँ,
चिंता से परे, सोच -समझसे सींचे है पिता,
ईंट-पत्थर के मकान की विशाल  अम्बर सी छत है पिता,
गिद्दों की दुनिया में देखो
सुरक्षा का वटवृक्ष है पिता,
माना कठोर नारियल से होते है पिता,
मगर नन्ही बिटिया के छूते ही भावुक होते है पिता,
दामन में अश्कों को समेटे रहते है पिता,
मगर बिटिया की विदाई पे देखो
अश्कों का समंदर बहाते है पिता।।
है निस्वार्थ पिता,
है परम आदर्श पिता।।
है धन धन पिता।।
लेखिका परिचय :- संगीता केस्वानी

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