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प्रकृति

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रचयिता : मित्रा शर्मा

सूखते खेत खलिहानों से
बंजर पड़े भूमि से
बर्वाद होते जंगल से
बेजार होते पेड़ पौधे से।
पूछो उनकी अभिलाषा
देखो बदलते परिभाषा ।
सुनो उनकी स्पंदन
करते हुए क्रंदन।
एक बूंद पानी की आस में
ह्रास होते सम्बेदना के त्रास में।
देख रही प्रकृति
रोती बिलखती चीत्कार करती।
भूल गया है तू अपना
मानविय कर्तब्य
पालना और सुरक्षा का फर्ज।
खुदगर्ज हुआ है तू मानव
समेटने में लगा है दानव ।
अब नही समझोगे तो कब
मिटने वाला है तेरा अस्तित्व ।
प्रकृति प्रदत्त उपहार को बचाने के लिए
अग्रसर होना पड़ेगा तुम्हे जीवन सँवारने के लिए।
बचाना होगा पानी और पेड़ जंगल
तय होगा तब जीवन मे सुकून और सम्बल।

परिचय : मित्रा शर्मा – महू (मूल निवासी नेपाल)

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