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बदला-बदला बसंत

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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“हाँ जी दादा, इस बार क्या लिख रहे हैं बसंत पर? भाई वाह, क्या लिखते हैं आप!”
ये हैं वयोवृद्ध कवि माखनलाल जी “रसिक”, जिनकी रसिक आँखें अब धुंधली पड़ गई हैं, कानों से सुनाई कम देने लगा है, हाथ काँपते हैं, लेकिन आज भी बड़े जोर-शोर से लिखते हैं। खासकर उनकी बसंत पर लिखी कविताओं के तो सब दीवाने हैं। सब कौन? जी, वही सब—शहर के कुछ गिने-चुने कवियों की संस्था में पधारे सभी कविगण, जो श्रोता और वाचक, दोनों की भूमिका निभाते हैं। यह संस्था हर साल बसंत पर एक काव्य गोष्ठी आयोजित करती है। बड़े श्रद्धाभाव से माँ सरस्वती के चरणों में अपनी रचनाएँ समर्पित करने वाले ये कवि न जाने जीवन के कितने बसंत पार कर चुके हैं, लेकिन कभी बसंत को सच में देखा नहीं। पर इनकी कल्पनाशीलता… वाह! ग़ज़ब! भँवरे का गुंजन, पलाश के फूलों की रक्तिम लालिमा, कोयल की कूक, पीली चुनरिया ओढ़े खेत… सब कुछ ऐसे चित्रित करते हैं मानो सूरदास अपने मन की आँखों से कान्हा की नटखट बाल लीलाओं का वर्णन कर रहे हों। वैसे भी, इनके हिस्से का बसंत तो कब का इनके बच्चों ने चुरा लिया। जब से इनकी बसंती इन्हें छोड़कर गई है, ये बिल्कुल एक सूखे दरख़्त की तरह आँगन में खड़े इंतज़ार कर रहे हैं।
सब कुछ होता है- आह्वान नव कलियों के आगमन का, पुरवाई हवा का, कोयल की कुहक का, पपीहे की पिहू-पिहू का… पर बसंत नहीं आता। इस बार भी नहीं आया। लेकिन इन्होंने आशा नहीं छोड़ी है! बसंत बदल गया है शायद… इसलिए हम उसे पहचान नहीं पा रहे! रसिक जी से कहना पड़ेगा—”आँखें धुंधला गई हैं आपकी, जो मन में रचा-बसा बसंत है, वहीं पर सुई अटक गई आपकी!” लेकिन रसिक जी कहाँ मानने वाले हैं? उन्हें तो अपने हिस्से में बसे बसंत के साथ ही जीवन गुज़ारना है!
बसंत आएगा क्या…? लगता है आपको…?
देखो न, लोकतंत्र का वृक्ष सूखा खड़ा है! बूढ़ा हो गया… ७६ साल का बूढ़ा! बिल्कुल कवि रसिक की तरह-अड़ियल, ज़िद्दी! बस बसंत के गीत गाए जा रहा है! पतझड़ में सूखे गिरे पत्तों के पीलेपन को ही बसंती रंग समझ बैठा है। कोयल नहीं बैठी है… कौवे बैठे हैं… काँव-काँव कर रहे हैं! और इन्हीं की काँव-काँव को कुह-कुह बताया जा रहा है! भँवरे नहीं मंडरा रहे हैं… ध्यान से देखो… चारों ओर भेड़िए मंडरा रहे हैं! नाजुक-सी कली, जो अभी ठीक से चलना भी नहीं सीखी, उनके चारों ओर…! भँवरों की नीयत हैवानियत की हद पार कर गई है…! बौराए ये भँवरे बसंत को आने नहीं देंगे! कुछ कोयलों ने अपने सुर बदल लिए हैं, उनकी दरबार में नौकरी लग गई। जो अपने सुर नहीं बदल पाए, उनके सुरों को दबाने के लिए कौवों की आवाज़ तेज कर दी गई। बदला हुआ बसंत, असली बसंत की तरह पेश किया जा रहा है।

कोयल को रहने के लिए जंगल चाहिए, झुरमुट, अमराइयाँ चाहिए न…? ये बात दरबार को पसंद नहीं आई। “भगाओ इन कोयलों को! ये जंगल की बात करती हैं… हम सभी इंसान हैं… जंगलराज की बात कैसे करेंगे? हमें जंगलों को साफ़ करना होगा… तभी जंगलराज ख़त्म होगा!” लो, जंगल साफ़ कर रहे हैं। इन कोयलों को अपना रहवास बदल लेना चाहिए… नए वक़्त के साथ! “आओ, तुम्हें महँगे-महँगे अपार्टमेंट दिलवा दें! एसी वाले चमचमाते अपार्टमेंट… बस तुम अपना गाना मत छोड़ो। गाओ, लेकिन सत्ता की ताल से ताल मिलाकर गाओ! तुम्हारा गला बढ़िया है, लेकिन सुर में रहना पड़ेगा… बेसुरा नहीं चलेगा! सत्ता के सुर में सुर मिलाकर गाओ… सत्ता का सुरापान कर गाओ!” कोयलें, जो इसे कैद समझती हैं, उन्हें सजा मिली है। उन्हें बसंत से मिलने नहीं दिया गया। भंवरों को चाकरी में लगा दिया गया है… उनके पर काट लिए गए हैं… अब वही कलियों को सजा रहे हैं। उन्हें बड़े भंवरों के दरबार में सजाया गया। बड़े भंवरों के पंख आकाश तक फैले हैं… पंख फड़फड़ाते हैं, लेकिन उन्हें मंडराने की जरूरत नहीं, तितलियाँ उनके चारों ओर मंडरा रही हैं। ओह! तो यह है असली बसंत… कैद इन रईसी कोठों में, इन नेताओं के दरबार में..! और तुम ढूंढ रहे हो बसंत… कच्ची बस्तियों में..? कवि रसिक लाल की काव्य गोष्ठी में..? बसंत का विहंगम दृश्य यहाँ है… राग दरबारी गाया जा रहा है, खुद बसंत राग गा रहा है। बाहर बूढ़ा लोकतंत्र खड़ा हुआ इस विरह की पीड़ा में सिर्फ आँसू बहा रहा है। वह सूख चुका है, तो कोयल भी छाँव न होने से उड़ गई। कौवे रह गए अपनी काँव-काँव देने के लिए। दस्तक हुई है दरवाजे पर।
मैंने पूछा, “कौन?”
“बसंत! मैं बसंत आया हूँ।”
मैं सो रहा था। इतनी देर रात में दरवाजे पर दस्तक! माजरा समझ में नहीं आया। थोड़ा डर भी लगा। इन दिनों शहर सहमा हुआ है, बाहर कर्फ्यू लगा है। अभी दो दिन पहले ही शहर में दंगा हुआ था। एक बार फिर शहर का नाम दंगा-प्रभावित इलाकों में सबसे ऊपर रह गया, भाई! देश के नामी-गिरामी न्यूज़ चैनलों में इस शहर का नाम आने के लिए दंगे और चुनावी दौरे ही काम आते हैं। शहर की गलियाँ सुनसान हैं, लेकिन टीवी न्यूज़ चैनलों पर शहर के नाम का शोर जोरों पर है। नेता प्रतिपक्ष एक-दूसरे पर दंगों की जिम्मेदारी का ठीकरा फोड़ने में व्यस्त हैं। बसंत बोला, “बड़े दबे पाँव आया हूँ, किसी को भनक न लगे।”
“क्या हुआ? इस बार मेरे बारे में कुछ नहीं लिखोगे? स्वागत नहीं करोगे मेरा?”
“मेरे शहर की हवाएँ रुक गई हैं… ज़हरीली हो गई हैं… चारों तरफ निराशा, बेचैनी, घबराहट पतझड़ के सूखे पत्तों की तरह बिखरी पड़ी है। लग रहा है, इस बार फिर पतझड़ बसंत को लील जाएगा। शहर में नाकाबंदी हो रही है। ऐसे में तुम नाकाबंदी तोड़कर आए हो! अगर पता लग गया, तो तुम्हें लॉकअप में बंद कर देंगे। तुम पर ही पतझड़ लाने का आरोप लगेगा।”
“मुझे तुम्हारा इरादा नेक नहीं लगता! बिल्कुल नेताओं की तरह! दंगे फैलाते हैं, फिर शांति की बात करने आते हैं। दंगों में ही शांति की गूंज साफ़ सुनाई देती है। अगर शांति रहेगी, तो फिर शांति लाने की बात कैसे की जाएगी?”
तुम भी शायद पहले पतझड़ को आने देते हो, ताकि लोग तुम्हारी माँग करें..! बसंत रुआंसा हो गया… “इन नेताओं ने मुझे खरीद लिया है..! मुझे आँगन में बाँध दिया है..! दम घुटता है मेरा..! मुझे बाहर निकालो! मुझे इन रईसों के कुत्ते की तरह नहीं पलना..! मुझे वी.आई.पी. की ज़िंदगी नहीं रास आती..! मैं तो खुला, स्वच्छंद घूमना चाहता हूँ… खेतों-खलिहानों में… इन पेड़ों की डालियों पर झूलना चाहता हूँ… कोयल के कंठ से मुखरित होना चाहता हूँ… भंवरों के पंख की भिनभिनाहट का स्पंदन महसूस करना चाहता हूँ… साहित्यकारों की लेखनी की स्याही में आना चाहता हूँ…!”
“चाहे कुछ भी हो जाए, इस बार मैं बसंत के बारे में कुछ नहीं लिखूँगा! सुना तुमने? तुम वापस जाओ… तुम्हारे खरीददारों के पास! अगर पता लग गया कि तुम मुझसे मिलने आए हो, ऐसे छुप-छुपकर… तो मैं भी तुम्हारे साथ धर लिया जाऊँगा!” मैं देख रहा हूँ बसंत को जाते हुए…! ठंड से काँपने लगा हूँ मैं…! शीत ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा है..! मैंने रजाई पूरी तरह ढँक ली है..!
श्रीमती जी ने झिंझोड़ कर उठाया मुझे… “सर्दियाँ चली गईं… तुम्हें पता नहीं कितनी सर्दी लगती है..! अभी भी रजाई ओढ़े पड़े हो..! चलो उठो..! वो बच्चे को बसंत पर एक निबंध लिखवा दो..! इतना-सा काम तो कर दिया करो… सारा होमवर्क मैं ही करती हूँ..! उनके क्लास टीचर ने भी कहा कि पापा की मदद ले लेना!”
मैं बच्चे को बसंत पर निबंध लिखवा रहा हूँ..! क्या कहा? अभी-अभी तो मैंने बसंत को झिड़क दिया था कि मैं कुछ नहीं लिखूँगा…! अब बसंत आया भी तो सपने में न..! अब सपने में ही तो कहा था मैंने कि… “मैं इस बार बसंत पर कुछ नहीं लिखूँगा…” अब सपने की बातें… सपनों में..!

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही आपकी पहली पुस्तक नरेंद्र मोदी का निर्माण : चायवाला से चौकीदार तक प्रकाशित होने जा रही है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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