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आखिर नाक का सवाल

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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इस विचित्र दुनिया में, जहां हर चीज़ की अपनी एक खास पहचान होती है, वहां “नाक” ने भी अपनी एक अनोखी जगह बना ली है। अरे, यह वह नाक नहीं है जो चेहरे के बीचोबीच शान से बैठी रहती है, बल्कि यह तो उस नाक का किस्सा है जो आजकल समाज में हर जगह अपना रंग जमाए बैठी है। किसी जमाने में नाक सिर्फ सांस लेने और खुशबू महसूस करने का जरिया हुआ करती थी, लेकिन कालांतर में इसने कुछ ऐसे रूप धारण कर लिए हैं कि बस, पूछो मत! कहीं यह “नाक का सवाल” बनकर समाज में इज़्ज़त की नाव को समाज की अपेक्षाओं के भंवर जाल में डुबोने से बचाती है, तो कहीं “नाक के बाल” बनकर ज़िंदगी की जटिलताओं में उलझाती नज़र आती है। कहीं नाक कट जाने के डर से न जाने कितने गरीबों के दो वक्त के चूल्हे की रोटी ठंडी हो जाती है।
अब आप ही बताइए, जब कोई आपके अपने काम में “नाक” अड़ा दे, तो आपका सारा समय उस नाक को निकालने में लग जाएगा। वहीं, “नाक कटने” ने तो कई लोगों को इस समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा। जब शूर्पणखा की नाक काटने को लेकर पूरी रामायण छिड़ जाती है, तो भला आज के जमाने में कम से कम इस नाक कटने को लेकर एक गर्मागर्म बहस और छींटाकशी तो हो ही सकती है। और कुछ नहीं तो सोशल मीडिया के कुछ “चिपकू” इस नकटे व्यक्ति की तस्वीरें डालने से लेकर, गली के नुक्कड़ पर चाय पीते हुए गप्पें हांकने तक अपनी मौजूदगी दर्ज करवा ही देते हैं।
इस कलयुग में, “नाक” एक ऐसा अवयव बन चुका है, जिसकी महिमा न सिर्फ मानव शरीर में, बल्कि समाज के हर कोने में विस्तारित हो चुकी है। यह नाक, किसी खास वर्ग के लोगों के लिए तो एक तरह से चुंबक का काम करती है। ये लोग चाहे जितने भी बड़े-बड़े कारनामे कर लें, लोग इस फौलादी नाक को पकड़-पकड़कर अपनी-अपनी तरह से सलामी देते नहीं थकते। इनमें कुछ बड़े बिगड़ैल रईस किस्म के लोग होते हैं, तो कुछ मक्कार नेता। बड़े-बड़े कारनामे, जैसे सरकारी स्कीमें हड़पना, अवैध कब्जा करना, बड़े घोटाले करना, बैंक से कर्ज लेकर हड़पना-ये सब उनकी बड़ी नाक के स्तर के काम होते हैं। मेरे एक दूर के रिश्तेदार हैं, जो बड़े रईस खानदान से हैं। उनकी शहर में बड़ी नाक थी, दूर-दूर तक उनकी नाक की चर्चा होती थी। हमने भी अपने परिवार में दादी से उनकी नाक की चर्चा सुनी थी। लेकिन वक्त के साथ उनकी नाक के चर्चे भी उलटे पड़ गए। लड़के निकम्मे निकले, धंधा चौपट हो गया। बेटी की शादी थी…। अब ठहरे पुराने रईसी खानदान के, रईसी चली गई, लेकिन नाक चूंकि अभी भी बड़ी रखी हुई थी। रस्सी जल चुकी थी, लेकिन बल जाने का नाम नहीं ले रहा था। तो शादी में खर्चा शानोशौकत के अंदाज से, वही पुराने रईसी समय जैसा करना चाहते थे। अब दौलत कहां से आए! हमने काफी समझाया, लेकिन वे नहीं माने। नाक बचाने के चक्कर में उन्होंने पूरे शहर के चक्कर लगा दिए। समाज उनकी ऊंची नाक से अब इंप्रेस नहीं हुआ। लेकिन अंत में, जब बेटी किसी विजातीय के साथ भाग गई, तब जाकर उनकी सांस में सांस आई। नाक बचाने के चक्कर में जो खर्चा होता, वह बच गया। लेकिन उन्होंने एक काम बड़े अच्छे से किया-दोनों को बुलाकर एक औपचारिक सा रिसेप्शन दे दिया और इस नए क्रांतिकारी फैसले से शहर में फिर से अपनी नाक की ऊंचाई को चीन की दीवार की तरह अभेद्य बनाए रखा।
अब शादी में फूफा को ही देख लो। इनकी नाक भी कोई कम लंबी नहीं होती। यह शादी में एक कोने में फेरों के लिए तैयार हो रहे दूल्हे से लेकर दूसरे कोने में हलवाई की कढ़ाई तक फैली रहती है। शादी का ऐसा कौन सा कार्य होगा जिसमें इन फूफाजी की नाक आड़े नहीं आती हो? और जब कोई इनकी बात नहीं सुनता, तो जो इनकी नाक अपनी भौंहों के साथ मिलकर सिकुड़ती है ना, उस समय इनके नथुने किसी सांड के अक्रोश के समय बने मुखारविंद से कम नहीं लगते। अब तो इन्हें शादी में रोके रखना भी साले-भतीजे सभी के लिए नाक का सवाल बन जाता है। और शादी की रस्म “घुड़चढ़ाई&” में एक और रस्म “नाक अड़ाई” की जुड़ जाती है। बेचारी बुआ बड़ी मुश्किल से अपने रूमाल से फूफा के फूले हुए नथुनों को पिचकाती है, तब जाकर नाक के सवाल का कुछ जवाब बन पाता है।
आजकल नौकरी करना भी आसान नहीं है। गए वो जमाने जब नौकरी का मतलब नाक की सीध में ऑफिस जाना, काम में अपनी नाक रगड़ना, और छुट्टी होने पर घर आकर बीवी की नोक-झोंक से अपनी नाक बचाए रखना होता था। आजकल तो कर्मचारी को अपने बॉस का “नाक का बाल” होना बहुत जरूरी है। बॉस का नाक का बाल बनने की ऐसी होड़ मचती है कि बेचारे बॉस की नाक बालों से हाउसफुल हो जाती है और बॉस को सांस लेना मुश्किल हो जाता है। फिर भी कर्मचारी बेचारा उन बालों के गुच्छे में अपना एक बाल भी फंसाने की
जगह के लिए बॉस के तलवे के नीचे नाक रगड़ता रहता है। वैसे, नाक रगड़ने से नाक प्रतिक्रिया स्वरूप सॉफ्ट की जगह हार्ड हो जाती है, और इतनी हार्ड कि अब यह नाक, जो पहले बात-बात पर कट जाती थी, अब नहीं कटती। जहाँ पहले नाक शादी में काजू कतली मेहमानों के लिए कम पड़ने पर कट जाती थी, अब घर से बेटी के भाग जाने और किसी विजातीय लड़के से कोर्ट मैरिज करने पर भी यथावत बनी रहती है। कुछ नाक पूरे शहर की नाक होती हैं, और पूरा शहर इनकी हिफाजत में लगा रहता है। ये ज्यादातर नेता लोग होते हैं, जिनकी नाक का डंका चुनाव के समय बजता है। सभी शहर के आंदोलनजीवी, मुफ्तखोरजीवी, लंगरजीवी, जीमन में माल उड़ाने वाले, और फ्री की दारू से उदरपूर्ति करने वाले लोग इनकी नाक को उठाए, जुगाड़ के ढोल-नगाड़ों के साथ पूरे शहर में डंका बजाते हैं। जैसे ही नेताजी के टिकट की घोषणा होती है, ये सब
नेताजी के चरणों में अपनी नाक रगड़कर सम्मान प्रकट करते हैं। और अगर दुर्भाग्यवश टिकट नहीं मिला, तो समझो उस दिन शहर में मातम छा जाता है।
शहरवासी अपनी-अपनी नाक से सूंघ लेते हैं कि कहाँ गड़बड़ी हुई, किसने पत्ता काटा, और षड्यंत्र की बू पकड़कर अपने-अपने तरीके से सांत्वना स्वरूप नेता जी की नाक से ध्यान हटाकर उनके कान भरने लगते हैं। कई प्राणी ऐसे होते हैं, जिनकी नाक की लंबाई भगवान ने असाधारण तरीके से बनाई होती है। साथ ही, इनकी नाक को भगवान ने विशेष कुत्ते जैसी सूँघने की क्षमता दी है। किसके घर में स्पेशल खाना बन रहा है, कहाँ दारू पार्टी हो रही है, इसका पता इन्हें नींद में भी लग जाता है। ये आयोजनकर्ता के घर के आसपास अपनी लगभग विलुप्त हो चुकी पूंछ हिलाते हुए, नाक के छिद्र चौड़े कर सूंघते हुए मंडराते रहते हैं। अगर इन्हें निमंत्रण नहीं मिलता, तो ये आयोजनकर्ता की नाक को सरेआम कटवाने का प्रयत्न करते हैं। आजकल संस्थाओं में भी नाक की बड़ी घुसपैठ हो रही है। कई लोग अपनी कुटिल चालों और चालित ढंग से संस्था के कार्यों में नाक अड़ाने का काम करते हैं। मंच, माला और माइक उन्हें यथावत मिलता रहे, यह उनके लिए नाक का सवाल होता है। ऐसे लोग किसी भी ऐरे-गैरे-नत्थू-खेरे को संस्था की नाक घोषित कर सकते हैं।

अपने स्वार्थ का उल्लू सीधा करने के लिए, कब किसी को नाक से गिराकर संस्था के तलुवे में रौंद देते हैं, पता ही नहीं चलता। संस्था के बजट बिगाड़ने में भी ये लोग पीछे नहीं रहते और इसे संस्था की नाक बचाने के नाम पर सही ठहराते हैं। इनका काम संस्था के हर कार्य में नाक फँसाए रखना होता है, जैसे खाने के मेनू में पकोड़ी और पापड़ी घुसेड़ना, फूल मालाओं में गेंदे के फूल की जगह गुलाब के फूल लगवाना, बैनर की साइज़ बढ़वाना, मंच से कुर्सियों की संख्या घटाना-बढ़ाना, आदि। संस्था की नाक के सवाल पर इतने सवाल खड़े किए जाते हैं कि बेचारा संयोजक उत्तरहीन और दीनहीन नज़र आने लगता है। खैर, इस नाक पुराण का जितना भी वर्णन करें, वह कम है। अभी इसे विराम देते हैं, फिर कभी और चर्चा करेंगे। चलते-चलते एक शेर सुनते जाइए:
“हर सवाल तेरी नाक पर है, झूठी शान को यूँ सिरा न दे,
तू यूँ अकड़ के हवा न दे, कहीं झूठ तेरा गिरा न दे।”

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही आपकी पहली पुस्तक नरेंद्र मोदी का निर्माण : चायवाला से चौकीदार तक प्रकाशित होने जा रही है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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