हितेश्वर बर्मन ‘चैतन्य’
डंगनिया, सारंगढ़ (छत्तीसगढ़)
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ऐ वक्त जरा ठहर जा,
मेरी भी सुन जरा रुक जा।
तेरे जाने से मैं छुट जाऊंगा,
तू चला गया तो मैं
मंजिल को कैसे पाऊंगा।।
ऐ वक्त जरा थम जा,
आ मेरे साथ जरा विश्राम तो कर ले।
मुझे अपनी मंजिल का बेसब्री से इंतजार है,
जरा रूक जा अपने साथ मुझे भी ले जा।।
ऐ वक्त जरा पीछे मुड़कर भी देख ले,
तेरा पीछा करते-करते मैं भी आ रहा हूँ।
मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींच ले,
समय का दो बूंद मेरे ऊपर भी सींच दे।।
ऐ वक्त जरा मेरी बातें भी सुन ले,
न बढ़ इतनी तेजी से जरा ठहर जा।
तू इतनी जल्दी में कहां जा रहा है,
बिना मंजिल के बस चलता ही जा रहा है।।
ऐ वक्त जरा ठहर जा,
एक पल मेरे ऊपर भी नजर तो उठा।
कर न मुझे यूं अनदेखा,
जरा थम जा मुझसे एक पल नज़र तो मिला।।
तूझे रोकना मेरे सामर्थ्य में नहीं है,
ऐ जाते हुए लम्हें मुझे अलविदा तो कहते जा।
फिर कभी वापस मिलेगा या नहीं !
कम से कम मुझे इतना तो बताते जा।।
ऐ वक्त क्या तुम एक पल भी रूक नहीं सकते,
क्या मेरे लिए चंद कदम पीछे भी चल नहीं सकते।
मन करता है मैं तुम्हें अपना मेहमान बना लूं ,
आतिथ्य की डोर से तुम्हें बांधकर पास रख लूं।।
निवासी : डंगनिया, जिला : सारंगढ़ – बिलाईगढ़ (छत्तीसगढ़)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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