विष्णु दत्त भट्ट
नई दिल्ली
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तीन दिन पहले की बात है। मुझे चाय पीने की इच्छा हुई और मैं रसोई में गया। मध्यम वर्ग वालों की रसोई होती ही कितनी है, बस एक आदमी मुश्किल से खड़ा हो पाता है। मैं चाय बनाने की कोशिश कर ही रहा था कि मैंने देखा कि एक मृगनयनी चुपचाप अंदर दाखिल हुई। उसे बेधड़क अन्दर घुसते देख मैंने आदतन कहा कि आंटी जी आप कौन? आंटी जी संबोधन सुनते ही वह बिदक गई और बोली- मरघिल्ले ! एक पैर केले के छिलके पर और दूसरा कब्र में लटका है और मुझे आंटी कह रहा है?
अरे! आप हो कौन जो मेरी रसोई में घुसकर मुझे ही गरियाने लगी?
मैं नई-नवेली जीएसटी हूँ। अभी मैंने सोलह वसंत भी पार नहीं किए और तुम मुझे आंटी कह रहे हो। उसने ठसक के साथ उत्तर दिया।
ठीक है कि तुम जीएसटी हो पर मेरी रसोई में क्यों घुस रही हो? मैंने तो तुम्हें नहीं बुलाया?
कैसे नही बुलाया? तुमने मुझे खुल्ला न्यौता दिया है। मैंने हैरानी से पूछा- “महारानी! मैंने तुम्हें कब न्यौता दिया?” अभी कुछ देर पहले तुमने बच्चे के लिए पेंसिल छीलने का शार्पनर ख़रीदा और २०० ग्राम दही का पाउच खरीदा न चिरकुट उसी के साथ आई हूँ।
अब तुम्हें छोटे बच्चे के हाथ का शार्पनर भी अखरने लगा और किसी गरीब के पेट में १००-२०० ग्राम दूध-दही जाए यह भी बरदाश्त नहीं?
बहस नक्को। मैं सरकार के आदेश से आई हूँ और तुम चाहो या न चाहो मैं यहाँ से जाने वाली नहीं हूँ। वह अभी ठीक से बैठ भी नहीं पाई थी कि एक अन्य भारी भरकम महिला रसोई में घुस आई।
मैंने उससे भी मासूम सा सवाल किया- “अब आप कौन हैं और मेरी रसोई में जबरजस्ती क्यों घुसी जा रही हैं? वैसे आप मुझे कुछ जानी पहचानी सी लग रही हैं। मैंने कहीं तो आपको देखा है?”
अरे! नासमझ मैं महंगाई हूँ।
हाँ अब पहचाना आपको? आपको मैंने पेट्रोल पंप, सीएनजी पंप, किराना की दुकान और सब्जीमंडी में देखा था। बड़े-बड़े मॉल्स में तो आपका जलवा देखते ही बनता है। आपके शरीर पर पिछ्ली बार की अपेक्षा इस बार अच्छी खासी चर्बी की परत चढ़ी हुई है इसलिए पहचान नहीं पाया।
पर मेरी रसोई में क्यों घुसी जा रही हैं, कहीं और जाकर आराम फरमाइए। फाइव स्टार होटलों में रहने की आदी आपको इस छोटी सी रसोई में बहुत असुविधा होगी।
असुविधा की बात नहीं है रे बाबा! बात यह है कि जहाँ मेरी बहन जीएसटी जाती हैं वहाँ मुझे आना ही पड़ता है, मज़बूरी है मेरी। असुविधा कितनी ही हो सरकारी आदेश का तो पालन करना ही पड़ेगा। आखिर सरकार को हमने ही तो चुना है। है कि नहीं?
अरे! बहन जी! मेरी छोटी सी रसोई में एक आदमी खड़ा नहीं हो सकता उसमें आप दोनों कैसे रह सकती हैं। निकलिए बाहर, मैंने कहा।
अरे चिमटे से! हमें बहन जी कह रहा है। हम तुझे बहन जी दिखती हैं। अभी जीएसटी ने अपनी परसेंटेज बढ़ा दी न तेरी पतलून ढीली हो जाएगी?
अब कितनी ढीली होगी। १००-२०० ग्राम दूध- दही में भी जीएसटी मैडम की हिस्सेदारी ने कमर ही तोड़ दी है। जब कमर ही नहीं रहेगी तो पतलून टिकेगी कहाँ?
दोनों पर मेरी मज़बूरी का कोई असर दिखाई नहीं दिया।
उन दोनों के रसोई में घुस आने के कारण मेरी पूरी रसोई बिखर गई थी। इस बात की दोनों को कोई चिन्ता नहीं थी। वे बेफ़िक्र होकर बोलीं- घर में मेहमान आए हैं, कुछ तो ख़ातिरदारी करो?
जबरजस्ती के मेहमानों की ख़ातिरदारी का रिवाज हमारे यहाँ नहीं है। निकलो बाहर। मैंने रोष जताया।
अबे चिरकुट! मेहमानों से बदतमीज़ी करता है। हम ऐरे-ग़ैरे मेहमान नहीं हैं सरकारी हैं। हम दोनों अभी भी कंट्रोल में हैं। हमें गुस्सा मत दिला। अपमान से आहत होकर अगर हम तुम्हारे गैस सिलेंडर में घुस गईं तो यहीं दम घुटकर मर जाओगे?
गरीबों का खून चूसकर इतनी मोटी हो गई हो। शर्म नहीं आती? यही हाल रहा तो एक दिन फट जाओगी समझी!! मैंने महंगाई को ताना देने की कोशिश की।
अरे भुखमरों! तुम्हारा बस चले तो तुम लोग मुझे जिंदा ही न रहने दो। वह तो सरकार की मेहरबानी और संरक्षण प्राप्त है इसलिए हम दोनों बहनें जीवित हैं। तुम चाहे जितना भला-बुरा कहो, हमें आदेश है कि तेल इन्ही तिलों में से निकालना है। चाहे इनकी चमड़ी क्यों न उतारनी पड़े?
उनकी ढीठता के आगे मैं नतमस्तक होकर रसोई घर से बाहर निकल आया। अब मेरी ही क्या सभी गरीबों की रसोई पर महंगाई का कब्ज़ा है और जीएसटी का उसे पूर्ण सहयोग प्राप्त है।
निवासी : नई दिल्ली
शिक्षा : एम.ए है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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