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उगा रहा खेतों में सूरज, अब लोहे के शूल

भीमराव झरबड़े ‘जीवन’
बैतूल (मध्य प्रदेश)
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उगा रहा खेतों में सूरज, अब लोहे के शूल।
सड़कों पर राही का स्वागत, करते तभी बबूल।।

कटे पंख के सुग्गे जिनका, जागा अभी जमीर।
लेकर कैंची काट रहे पर, डरे न जो रणधीर।।
जगह-जगह पर बिछा रहे हैं, फाँसे ऊल-जलूल।।

नशा भक्ति का चढ़ा अभी तक, पड़ा उनींदा भोर।
पुरवा-पछुआ के मृदु स्वर में, रहा न अब वह जोर।।
धूल झोंक, बन बैठा उर में, अंधड़ स्वयं रसूल।।
उगा रहा खेतों में सूरज, अब लोहे के शूल।
सड़कों पर राही का स्वागत, करते तभी बबूल।।

कटे पंख के सुग्गे जिनका, जागा अभी जमीर।
लेकर कैंची काट रहे पर, डरे न जो रणधीर।।
जगह-जगह पर बिछा रहे हैं, फाँसे ऊल-जलूल।।

नशा भक्ति का चढ़ा अभी तक, पड़ा उनींदा भोर।
पुरवा-पछुआ के मृदु स्वर में, रहा न अब वह जोर।।
धूल झोंक, बन बैठा उर में, अंधड़ स्वयं रसूल।।

अश्वमेघ को दौड़ रहा है, अहंकार का अश्व।
ऋण की समिधाओं में धधका, बचा न अपना स्वत्व।
आत्ममुग्ध हो रथी कर गया, सबकी ढीली चूल।।

परिचय :- भीमराव झरबड़े ‘जीवन’
निवासी : बैतूल मध्य प्रदेश
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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