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बच्चों को कैसे संस्कारित किया जाए

सरला मेहता
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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“बच्चों पर निवेश करने की सबसे अच्छी चीजें हैं अपना समय और अच्छे संस्कार। एक श्रेष्ठ बच्चे का निर्माण सौ विद्यालय बनाने से भी बेहतर है।” -स्वामी विवेकानन्द
बाल-विकास की अवधि गर्भावस्था से परिपक्वता तक मानी जाती है। गर्भ में पल रहे शिशु पर माता के खान-पान, आचार-विचार एवं वातावरण का प्रभाव पड़ता है। माता को “भए प्रगट कृपाला” जैसे पाठों का वाचन-श्रवण करने की सलाह दी जाती है। अभिमन्यु, चक्रव्यूह प्रवेश की जुगत माँ के गर्भ से सीखकर आया था। ईंट अपने साँचे जैसी ही ढलेगी।
१ से ५ वर्ष तक शैशवास्था में बच्चा परिवार में रहता है। गीली मिट्टी से जैसा कुम्भ चाहो गढ़ लो। संस्कार किसी मॉल से नहीं, घर-परिवार के माहौल से मिलते हैं। कहते हैं…
“बुढ़ापे में रोटी औलाद नहीं,
हमारे द्वारा दिए संस्कार देते हैं”
“बातों से संस्कार का पता चलता है”
५ से १२ वर्ष तक बाल्यावस्था, विद्यालय में गुज़रती है। सांदीपनि या वशिष्ठ तो मिलने से रहे। इस अवस्था में गुरु की सीखें बहुत मायने रखती हैं। संस्कार खरीदे नहीं जाते, अंकुरित किए जाते हैं। शिक्षक-अभिभावक के तालमेल से बच्चे के जीवन की इमारत आकार लेती है। बच्चे बड़ो की बातें मानते हैं अतः इस अवस्था में जीवनमूल्य सिखाए जा सकते हैं। सीखे हुए मूल्यों को जीवन में भी उतारना है, जीत के साथ हार भी स्वीकारना है। कलाम के अनुसार बच्चा याद रखे कि वह विजयी है, ईश्वर उसके साथ है। अम्बानी जैसा धनी बनने के साथ टाटा जैसा खुशहाल भी बने। निराशा शब्द को बच्चे के शब्दकोश से मिटा दे। आख़री विसल बजने तक निराशा क्यों ? सिकन्दर जिस जहाज में सेना लाता था उसे नष्ट कर देता था उसका सन्देश रहता था सैनिकों के लिए कि जीतकर ही जाना है। जीत जैसे हार को भी स्वीकारें। हमारे लिए ६ तो किसी के लिए वह ९ है, “कटी टहनियाँ छाँव नहीं देती… हार से ज़्यादा उम्मीदें घाव देती।”
दिमाग़ी सृजनशीलता से थोड़े में ही काम चलाया जा सकता है जैसे महाराणा प्रताप। डर से डरना तजना होगा। करनेवालों को रास्ते नहीं मन्ज़िल दिखाई देती है। निपुणता पाने के लिए वही करो जिसमें कमी हो। बच्चे अभिभावक का अनुसरण करते हैं। एक संत के घर का तोता श्लोक बोलता है तो डाकू का तोता गालियाँ। प्लेटो ने कहा कि बाल्यावस्था में जो संस्कार देते उनका प्रभाव बच्चे के कार्यक्षेत्र के साथ उसकी व्यवसायिक दक्षता पर भी पड़ता है।
अब आती है १२ से २० वर्ष तक की किशोरावस्था। बच्चा बचपन की मजबूत नींव पर एक इमारत बन चुका है। अब इसे घर कहे या मकान यह बच्चे के आचार-विचार व व्यवहार पर निर्भर करता है। इस काल में बच्चा शिक्षकों व अभिभावकों से दूरी बना मित्रों के साथ नई दुनिया बना लेता है। जैसी संगत वैसी मत, लत, गत। संचार-प्रचार के साधनों का प्रभाव संस्कारों पर हो रहा है। पहले बुजुर्गों से सीखते थे। अब सीख रहे हैं गूगल से। दो राहें हैं, एक कलाम की ओर तो दूसरी लादेन की ओर जाती है। अतः सोशल मीडिया के साधनों से बच्चों को दूर रखे। ज्ञानार्जन के लिए उचित है किंतु इनके दुष्प्रभावों से बचाए। अतः पहले संस्कार फ़िर कार वरना जीना बेकार।
इसके पश्चात बच्चे के खान-पान पर भी संस्कार निर्भर करते हैं। जैसा पानी वैसी वाणी और जैसा अन्न वैसा मन। अतीत चाहे अनपढ़ था किंतु संस्कारवान था। संयुक्त परिवार में संस्कार स्वतः ही आ जाते हैं। उनके साथ खेलो कूदो, मस्ती करो चाहे सोफ़ा टूट जाए। कक्षा में पूछा कि बड़े होकर क्या बनोगे। एक ने लिखा टी वी क्योंकि उसे सब देखते हैं। हमारे समय के बदले में वे हमारी सब बातें मानेंगे।घर की किलकारी ही समाज का सवेरा है।श्रवण जैसी संवेदनाएं तभी पनपेगी। आर जे कार्तिक कहते, “सीखोगे नहीं तो जीतोगे कैसे।” कतर के धावक के लिए गिरे हुए साथी की मदद करना ही सबसे बड़ी जीत है।
प्यार व अनुशासन के संतुलन से बच्चों को संस्कारित किया जा सकता है। बच्चों को घर का गमला नहीं बनाना कि सींचे नहीं तो सूख जाए। उसे तो जंगल का पौधा बनाना चाहिए। अनाज के अकाल से मानव मरता है और संस्कार के अकाल से मानवता। ईमानदारी से बढ़कर कोई विरासत नहीं, संस्कारों से बढ़कर कोई वसीयत नहीं।

परिचय : सरला मेहता
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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