डॉ. भगवान सहाय मीना
जयपुर, (राजस्थान)
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संस्कारों की जननी, संस्कृति की पाठशाला।
जन्मभूमि परिवार, यह कर्मों की कार्यशाला।
रिश्तों का गहरा सागर, जीवन का ताना-बाना।
चौखट है गीता का ज्ञान, छत संबंधों का मेला।
कुरुक्षेत्र यह केशव का, राघव का वनवास घना।
मर्यादा की बंधी पोटली, सभ्यता का यह थैला।
परिवार शिक्षा का केंद्र, जीवन का आदि अंत।
जीने की जिजीविषा, यहां संघर्षों का रेला।
सीख कसौटी, मीठी घुड़की, आंगन में मिलती।
जो रहता है परिवार में, वो मनुज नहीं अकेला।
यहां मां की स्नेहिल लोरी, बापू का तीखा प्यार।
बहन- भाई का रिश्ता, मणियों की मीठी माला।
कर्मों में कर्तव्य पहले, शिक्षा में आज्ञा पालन।
संबंधों में नैतिकता, परिवार पुनीत यज्ञ शाला।
दादा – दादी की सीख, नाना – नानी की परवाह।
चाचा-चाची, ताऊ-ताई, यूं रिश्तों की चित्रशाला।
वैभवी गीता का ज्ञान, रामायण का पुरूषोत्तम।
परिवार की परिभाषा, सिद्धांतों का रखवाला।
वंश दीप की स्वर्णिम चमक, देवों की मंत्र माला।
पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की ज्ञान शाला।
परिचय :- डॉ. भगवान सहाय मीना (वरिष्ठ अध्यापक राजस्थान सरकार)
निवासी : बाड़ा पदम पुरा, जयपुर, राजस्थान
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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