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भाषा दीवार नही

शांता पारेख
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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कलाम साहब ने पूरी शिक्षा तमिल भाषा मे ली, उनको अंग्रेजी नही आती थी। आप जानते है कि वे एक चोटी के अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक है। बाद में उन्होंने कामचलाऊ अंग्रजी सीखी। ये कहना व सोचना की ज्ञान अंग्रेजी में ही पाया जा सकता है, सिरे से गलत है, अपनी मातृभाषा में हम ज्यादा चीजे कम समय मे सीख जाते है, जब बुद्धि परिपक्व हो जाय तब कोई भी भाषा सीखेंगे तो समय बहुत कम लगेगा क्योंकि मूल ज्ञान आपकीं भाषा मे आपके पास है तो अन्य भाषा की कोई भी बात से आसानी से जुड़ जाएंगे परन्तु अभी हर बच्चा ए फ़ॉर एप्पल में ही पूरी क्षमता व उर्जा समाप्त कर रहा है। नई शिक्षा नीति पर ध्यान देकर बालको को मेधावी बनाया जाय फिर अच्छे बेसिक के साथ जर्मनी जाए चाहे जापान सब कर लेगा। मध्यकाल में देशी भाषा के ज्ञान से बड़े काम किये ही थे। पर अब तो मोबाइल पर अनुवाद की खूब सुविधा है तो मातृभाषा का सिद्धान्त अपनाना सरल है। भिन्न भाषा के विद्वान भी ज्ञान का हस्तांतरण कर लेते है क्योंकि विद्वान अगर दुराग्रही है तो विद्वान हो ही नही सकता, गुप्तकाल में दोनो चीनी यात्री आये तो उन्होंने नालंदा में पढ़ाई भी की व यात्रा वृतांत भी लिखे जिन्हें आज भी प्रामाणिक माना जाता है, इसलिए इस भाषा के विपक्ष में बोलना सिर्फ़ राजनीतिक रोटियां सेंकना है। जनता इस कुचक्र को जितनी जल्दी समझे उतना समय व श्रम बचा लेगी व अच्छे परिणाम मिलेंगे। ये देश को बांटे रखने की चाल के साथ अशिक्षित रखने की चाल भी है। जनता को खुद उठ खड़े होना होगा। बिना अंग्रेजी के भी अभूतपूर्व ज्ञान था व पूरा देश एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोया हुआ था तभी तो गाँधीजी पूरे देश मे एक साथ आंदोलन चला सके एक देश एक चेतना हो तो भाषा कोई दीवार नही हो सकती। इन्ही कलाम साहब के निवृत्ति के बाद विदेशी विश्विद्यालयों में व्याख्यान देने जाते तो उनके खर्च पर राजनीतिक दल ने सवाल उठा दिए थे, राजनीतिज्ञ के भरोसे रहना छोड़ जनता जब खुद खड़ी हॉगी एक भी दीवार नही रहेगी। इसी दीवार के पीछे पाप की खिचड़ी पकाई जाती है।

परिचय : शांता पारेख
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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