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गिद्ध भोज

राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
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गिद्ध बड़े मजे से
दावत उड़ाते हैं,
बिना मेहनत से
मिला खाते हैं,
आज भी गिद्धों की
बैठक हो रही है,
बैठक भी वहीं जहां
मिल गया गोश्त,
आज झगड़ा भी नहीं
सभी हैं दोस्त,
आज तो बस जाम
और साकी है,
ऐसा खाये कि केवल
हड्डी बाकी है,
सबने देखा आज
फिर कोई मरा है,
हमारे लिए मैदान
हरा ही हरा है,
मगर ये क्या?
इस मरने वाले को तो
चार लोग कंधे पर उठाए हैं,
आगे व पीछे भीड़ लगाए हैं,
गिद्ध निराश हो गए,
कई तो उदास हो गए,
तब वृद्ध गिद्ध ने बोला,
भाइयों इसका मांस
हम नहीं खा सकते,
क्योंकि ये इंसान है,
ये अपने पीछे होने वाले
नोचपने से अंजान है,
इसे तो अभी जलाएंगे
या दफ़नायेंगे,
फिर कुछ दिनों के लिए
ये सब गिद्ध बन जाएंगे,
अब ये मरने वाले का
शरीर नहीं नोचेंगे,
बल्कि उनके परिवार
वालों को नोचेंगे,
हम तो वातावरण
साफ रखते हैं,
ये अपने खाने का
हिसाब रखते हैं,
अब ये हमारी बराबरी
क्या कर पाएंगे,
इंसानों की फितरत रही है
वे जिंदों को ही नोच खाएंगे।

परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी
निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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