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पनिहारिन

संजय कुमार नेमा
भोपाल (मध्य प्रदेश)

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दिखती नहीं कोई पनिहारिन
लंबी-लंबी पगडंडी सूनी है।
ना पनघट बचे ना पानी है।
ना चमचमाती घघरी है।
गोरी पनिहारिन अब दिखती नहीं ।
सिर पर सजी चुनरी, दिखती नहीं।
कमरिया पर गघरी दिखती नहीं।
हिरनी सी चाल में दिखती नहीं।
पग पैजनिया से घुंघरू बजते नहीं।
तीखी कजरारी आंखें चमकती नहीं।
केशों में लिपटा गजरा दिखता नहीं ।
गजरों की भीनी खुशबू आती नहीं।
अब न पनघट बचे ना पनिहारिन है।
पैजनिया से घुंघरू बजते नहीं।
पनघट वाली तिरछी गली गुलजार न रही।
सूना कोना अब मुलाकातें, यादें रही।
हिरनी की चाल सा न कोई दिखाता।
तिरछे नैनो में काला कजरा, न दिखता।
तिरछे नैनो से पनिहारिन को कौन बुलाता।
पपीहा भी पियू कर शांत हो जाता ।
कोयल भी कुहू कुहू कर उड़ जाती है ।
पनघट पर चाहूं ओर घोर उदासी है।
गांवों की यादें अब भी बाकी है।
पनिहारिन भी अब उदासी है।

परिचय :- संजय कुमार नेमा
निवासी : भोपाल (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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