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ये औरतें भी न…

रेणु अग्रवाल
बरगढ़ (उड़ीसा)
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हर बार हैरान
हो जाती हूँ मैं
जब भी सोचती हूँ कि
हार गईं ये …
लेकिन उठ खड़ी होती हैं
एक नई शक्ति के साथ
दो-दो हाथ करने
रोज़मर्रा की तकलीफों से
पता नहीं इतनी ताकत
लाती कहाँ से हैं?

ये औरतें भी न!
कितनी आसानी से
हर किसी के
जीवन में अपनी
जगह बना लेती हैं
जैसे पानी हर बरतन
जैसा ही हो जाता है

एक जगह जन्म लेती हैं
और फिर अपनी
जड़ों समेत
उखाड़कर एक
नई ज़मीन पर
लगा कर उगने के लिए
छोड़ दी जाती हैं

अजनबी लोगों के
बीच इस तरह
अपनी पहली
रसोई बनाती हैं
जैसे उसी रसोईघर
में सदियों से
पका रही हों छप्पन भोग

ढूँढती हैं घर के हर
सदस्य के जीवन में
थोड़ी सी जगह
अपने लिए
कभी पुचकारी
जाती हैं तो
कभी फटकारी
जाती हैं
माँ बाप के नाम पर
ताने भी खाती हैं

कितनी भी हो प्रबुद्ध
घर की मुरगी
दाल बराबर
अनपढ़ के नाम से ही
बुलाई जाती हैं

बंद कमरे में
खाती हैं मार
तो शरीर पर पड़े
नीले निशानों को बड़े
बाजुओं वाले स्टाइलिस्ट
ब्लाउज के नीचे छुपाती हैं
रात भर मुँह में कपड़ा
ठूँस कर रोने के बाद
सूजी आँखों के लिए नींद
न आने का बहाना बनाती हैं

ये औरतें भी न!
कितनी आसानी से
घर में हिंसा की
शिकार होकर
चेहरे पर भारी
मेकअप का
मुखौटा चिपकाकर
बाहर घरेलू हिंसा पर
लेख लिखती और
भाषण देती हैं
नारी शक्ति का अलख
जगाती हैं

ये औरतें भी न!!
कितनी आसानी से
उपेक्षा और अपमान का
जहरीला घूंट पीकर भी
खिलखिलाकर हँस लेती हैं
आखिर ये इतनी ऊर्जा
लाती कहाँ से हैं?

परिचय :-  रेणु अग्रवाल
निवासी – बरगढ़ (उड़ीसा)
सम्मान – हिंदी गौरव राष्ट्रीय सम्मान २०२२
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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