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कुछ शराफ़त बची हैं दरमियां अपने

मनमोहन पालीवाल
कांकरोली, (राजस्थान)
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कुछ शराफ़त बची हैं दरमियां अपने
या मुहब्बत बची हैं दरमियां अपने

हर इक चेहरा नया, अभी प्यार हुआ
कुछ नजाकत बची हैं दरमियां अपने

वो मुहब्बत नहीं शायद नादानिया थी
अपनी शरारत बची हैं दरमियां अपने

चाँद तोड़ लाते थे मुहब्बत में लोग
इक नदामत बची हैं दरमियां अपने

कह न पाए आपस मे बारहा हम तुम
यही शिकायत बची हैं दरमियां अपने

जीना किसको हे ताअबद यहाँ पर
एक कयामत बची हैं दरमियां अपने

हम छुपा भी गए ख़ामोशियों को
यही हकीकत बची हैं दरमियां अपने

बारहा नज़र उठतो तेरी सूरत पर मेरो
कोई चाहत बची हैं दरमियां अपने

तेरा अतीत मेरी ज़िंदगी बन गई यारो
यही इमारत बची हैं दरमियां अपने

मेरे अलफ़्फ़ाज सुनाइ नहो देते मोहन
यही मुसीबत बची हैं दरमियां अपने

नजाकत-कोमलता
नदामत-पश्चाताप
ताअबद-अनंत काल तक

परिचय :- मनमोहन पालीवाल
पिता : नारायण लालजी
जन्म : २७ मई १९६५
निवासी : कांकरोली, तह.- राजसमंद राजस्थान
सम्प्रति : प्राध्यापक
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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