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क्या भर पायेगा सुराख

राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
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पैदा होते ही कराया गया
अहसास,
कहीं न कहीं है
बहुत बड़ा सुराख,
उनके हर प्रमुख मौके पर
नाचते हम,
हमारे मौकों पर कहां से
ले आते वे गम,
छूने से, घूरने से,
परछाई पड़ने से,
वैचारिक लड़ाई लड़ने से,
वे खड़े रहते हैं भृकुटि ताने,
आंख मूंदकर
सिर्फ उनकी मानें,
गालियां हमें भी
सिखाया जाता है
हम खामोश रहते हैं,
पर वे गाली दे जाते हैं
हमें जाति के नाम पर,
सदा चोट पहुंचाते हैं
हमारे सम्मान पर,
क्या हम या हमारी जाति
सचमुच घृणा के लायक हैं?
या खुद के अहम को संतुष्ट करने
हमें मान लेते खलनायक है?
कुएं में,
घाट में,
चक्की में,
तरक्की में,
विद्यालय में,
औषधालय में,
कहां नहीं अहसास
कराया जाता है
छोटे बड़े सुराख?
जबकि हम आदी हैं
प्रेम बांटने के,
सुराख पाटने के।

परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी
निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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