उधार जिंदगी………
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रचयिता : दिलीप कुमार पाठक
मैं हार जाता हूँ अक्सर,फिर भी जीता हूँ
भूला नहीं हूँ अक्सर कभी – कभी पीता हूँ
तेरी जीत मेरी हार नहीं, फिर भी रोता हूँ
परिहास करे ज़िंदगी मेरा, इसलिए जीता हूँ……
खनकते नगमें जिंदगी, ऐसे बजा रही है
अर्थी में लिटाने मुझको ऐसे सजा रही है
मिलना चाहे मुझसे, खुद को मिला रही है
परमदशा को आतुर ऐसे मिलवा रही है……….
अपारिहार्य है सबको नितांत नहीं है, मिटना
पंचत्तत्व में सबको नित मिलना ही मिलना
मुझमें क्या अनोखा है, तेरा है, ताना – बाना
सैलाब, उमड़ में मिला ले करवा मेरा नज़राना…..
डर नहीं था जिद थी, तुझसे नहीं मिलेंगे
भूले गए थे किरदार नहीं हैं हम नहीं जलेंगे
माया में उलझे थे, माया लोक नहीं तजेंगे
समझ में सब है आया हँस कर हम जलेंग
……………………… ..हँस कर हम जलेंगे
…………………………… प्राण हम तजेंगे
लेखक परिचय :- दिलीप कुमार पाठक
शैक्षणिक योग्यता :- स्नातक, बायोलॉजी, चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय सतना
वर्तमान में :- रेनसा विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के विद्यार्थी
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