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लेखनी मुझसे रूठ जाती है

शिवदत्त डोंगरे
पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश)
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जब भी मैं लिखने बैठता कविता,
लेखनी मुझसे रूठ जाती है,
वह कहती मेरा पीछा छोड़ दो,
मुझसे अपना नाता तोड़ दो,
क्या तुम मुझे सौंदर्य में ढाल सकोगे,
इस घुटन भरे माहौल से निकाल सकोगे,
क्या तुम कुछ अलग लिख सकोगे,
या तुम भी दुनिया की बुराइयों को,
अपनी रचना में दोहराओगें?
दहेज, भूख, बेकारी के शब्द में
अब ना मुझको जकड़ना,
हिंसा दंगों या अलगाव के चक्कर
में ना पड़ना,
नेताओं को बेनकाब करने में
मेरा सहारा अब ना लेना,
बुराइयां ना गिनाना
अब बीड़ी सिगरेट या शराब की,
उकता गई हूं अब मैं,
बलात्कार हत्या या हो अपहरण,
इन्हीं शब्दों ने किया है
जैसे मेरे अस्तित्व का हरण।
लेखनी बोलती रही,
मुझे मालूम है तुम इंसानियत
की दुहाई दोगे,
इसलिए मैं पास होकर भी हूं पराई।
अगर लिखना हो तो लिखो,
प्रकृति की गोद में बैठ कर,
फेंक दो सारी बुराइयों को समेट कर,
चार दिन की जिंदगी है
कविता की जिसमें बचना चाहती है,
नफरत मिटाकर प्रेम बांटना चाहती है,
नये सपने सजाना चाहती हूं,
जो भी सुने, जो भी पढ़े
अपने गम भूल जाए
अब शब्द डलेंगे मेरी मर्जी से
और मैं सोच रहा था !
क्या मैं ऐसा कर पाऊंगा?
समाज में फैली बुराइयों से
क्या मैं मुंह फेर पाऊंगा
अन्य समस्याओं को
कैसे भुला पाऊंगा।

परिचय :- शिवदत्त डोंगरे (भूतपूर्व सैनिक)
पिता : देवदत डोंगरे
जन्म : २० फरवरी
निवासी : पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है।


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