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नदी नदियां

संजय कुमार नेमा
भोपाल (मध्य प्रदेश)

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पर्वतों से निकलकर प्रवाहिनी,
अविरल बहती उछलती कूदती,
अपने पथ को तलाशती।
पतली सी मासूम सी
जलधारा में पानी बचा शेष।
घुटनों भर पानी से
भिंगोकर हो जाते पार।
अब हम हो रहे मायूस।।
लुप्त हो रहे जंगल
सूख रही वाटिकांए।
अपना गंतव्य तलाशती,
निर्झर बहती धाराओं‌ में
अब शेष रह गई रेत।
बिन पानी हम हो गए मायूस।
जैसे ही अषाढ़, सावन, भादों,
बरसता भर जाता उसका थाल।
अब नदिया इतराती,
मतवाली सी
बदली उसकी चाल।
दोनों किनारों का अब
हरियाली की चुनरी से
जलमाला का होता श्रंगार।
वर्षा जल से भरकर,
उछले कूदे मैदानों में
आकर निर्झरिणी
की बहती धारा।
अंत समय में
शीतलता से सब साथ,
तनुजा ने लाकर सब कुछ
समर्पित कर दिया सागर को।
सब कुछ देकर भी तरनी,
तटनी, ने अर्पित करके
सबका जीवन साकार किया।
अब ना करो मन-माना
सदा नीर का दोहन।
सदा नीर, तरंगिणी
रेत निकाल कर रो रही,
मछलियां तड़प रही।
जलधारा के विरह में
तरनी सिकुड़ रही।
आओ हम सरिता को सहेजें
तभी तो कह लाएगी, सदानीर,
निर्झरणी, प्रवाहिनी तभी तो
सेवा और समर्पण से,
मानवता का जीवन
साकार करा-येगी।
होगा तभी जल,
जंगल और जमीन।
जब तुम जीवन में
पानी पाओगे।
अपने सूखे कंठों की
प्यास बुझाओगे।

परिचय :- संजय कुमार नेमा
निवासी : भोपाल (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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