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कश्ती कागज की

संजय कुमार नेमा
भोपाल (मध्य प्रदेश)

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कश्ती कागज की, मझधारो में
मिल जाए कोई खिवईया।
कोई तो पार लगाएं ‌
सागर के नीले पानी में।।
संभालो मुझे तूफानों में, हिलोरों में,
कश्ती न डूबे जज्बातों में।
ये कश्ती कागज की
बहते पानी में।।

समुद्र के बीचों बीच,
दिखता न कोई किनारा।
अब कोई हाथ तो थामें,
लगा दो अब किनारे।
गहराई में लहरों से
डगमग चलती ये कश्ती।।
अब कश्ती है मझधारों में।।
ये कश्ती कागज की
बहते पानी में।।

अब नहीं है कोई खिवैया,
अब मैं राह भटकूं।।
इन मजधारों में,
आंधी में तूफानों में।
हुनर है मेरे पास,
मुझे तो बचना आता।।‌‌
अब इन मजधारों में।
यह कश्ती कागज की
बहते पानी में।। ‌

अब भी है हौंसला,
हम तो बैठे
कागज की नाव में।
इंतजार है उन लहरों का,
मजधारो में।।
अब लहरें इतराती नहीं,
इठलाती नहीं।।
किनारा दूर नहीं।
अब कोई मुझे रोक न सका,
टोक न सका।।
चलने से इन बुलंद इरादों में।
यह कश्ती कागज की
बहते पानी में।।

परिचय :- संजय कुमार नेमा
निवासी : भोपाल (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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