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आशियाने जले कैसे

सीताराम पवार
धवली, बड़वानी (मध्य प्रदेश)
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पता नहीं वो अब अपने ही जमीरो से हिले कैसे

नफरत कैद में उनके ये मोहब्बत सबको मिले कैसे
गम की रात में चांद डूबा है ये चांदनी भी खिले कैसे।

खामोश रहता हूं मगर मुँह में जुबान तो है यारो
कहे कैसे हमने अपनी मजबूरी में ये होंठ सिले कैसे।

हमने तो सच्चाई ही बयान की थी उनकी फितरत की
पता नहीं वो भी अब अपने ही जमीरो से हिले कैसे।

मंजिल पाने वाले को सफर का अंजाम नहीं मालूम
सफर से अनजान है फिर वो उस मंजिल तक चले कैसे।

बिन कायनात के भी क्या वजूद है उस इंसान का यारो
चिराग तो जलाया था फिर ये आशियाने जले कैसे।

कोई भी काम मुश्किल नहीं हौसले बुलंद होना चाहिए
गर इरादे मजबूत हो तो फिर तकदीर से गिले कैसे।

जिनको याद करके हमने सारी जिंदगी गुजार दी
फिर बेखुदी में अपनी जिंदगी में उनको भूले कैसे।

परिचय :सीताराम पवार
निवासी : धवली जिला बड़वानी (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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