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विश्वास

सुधाकर मिश्र “सरस”
किशनगंज महू जिला इंदौर (म.प्र.)
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रूपल का कॉलेज में ग्रेजुएशन का अंतिम साल था। परीक्षा शुरू होने के पहले सभी सहेलियों ने अंतिम पार्टी रखी थी। ग्रेजुएशन के बाद क्या करना है, फिर कब और कहां मुलाकात होगी, यही वार्तालाप चल रही थी। सीमा बीच में बोल पड़ी…अरे रूपल जी …रंजन जीजू आई मीन रंजन बाबू का क्या होगा.. हमें भी तो बताओ।
रंजन कॉलेज का सबसे होनहार व अनुशासित लड़का था। वह रूपल की सादगी व सुन्दरता पर मरता था। जब पहली बार रूपल कॉलेज ज्वॉइन किया था तो रूपल के पिता महेश बाबू ने रूपल से बस इतना ही कहा था की, बेटा तुम्हारे साथ मेरी लाज भी कॉलेज जा रही है। मेरी लाज अब तुम्हारे हाथों में हैं, यह हमेशा महसूस करना। मुझे पूरा विश्वास है मेरी बेटी मेरा शीश नहीं झुकने देगी।
रूपल ने रंजन के बारे में केवल अपनी मां को बताया था। महेश बाबू घर के आंगन में चाय की चुस्कियां लेते हुए रूपल की मां रजनी से रूपल की शादी के बारे में चर्चा कर रहे थे।
रूपल कॉलेज की परीक्षा दे कर घर आ चुकी थी। तभी रजनी जी रूपल को प्यार से पुचकारते हुए बोलीं … रूपल, जा तेरे बाबूजी बुला रहे हैं। आ बेटा, कैसी रही परीक्षा? रूपल के सर को सहलाते हुए महेश बाबू ने पूंछा। बाबूजी बहुत अच्छी रही। शाबाश बेटा ! तुमसे यही उम्मीद थी। अच्छा सुनो, कल लड़के वाले तुम्हे देखने आ रहे हैं, अच्छे से तैयार रहना। लड़का मुझे बहुत पसंद है, अच्छा घर-बार है।
इतना सुनते ही जैसे रूपल को करंट का जोर का झटका सा लगा। वह सोचने लगी, क्या वही मेरे बाबूजी हैं जो मुझ पर इतना विश्वास करते थे। इतना बड़ा फैसला करते समय मेरी राय भी लेना उचित नहीं समझा। क्या मैं दूध पीती बच्ची हूं की मेरी राय का कोई मतलब नहीं? क्या मां ने भी बाबूजी को नहीं बताया? मुझ पर जान छिड़कने वाले बाबूजी को क्या हो गया। क्या उनका प्यार-दुलार मात्र दिखावा है? आखिर शादी की बात पर मां-बाप अपनी औलाद के दुश्मन क्यों बन जाते हैं…कहते हुए तकिए में सर छुपाकर कब सो गई पता ही नहीं चला।
उठ रूपल बेटा, देख लड़के वालों के आने का समय हो गया। जल्दी से तैयार हो जा। रूपल काफी सोच-विचारकर अपने बाबूजी के खातिर अपने सलोने सपनों का आत्मसमर्पण कर चुकी थी। पुनः रजनी जी ने आवाज लगाई … देख रूपल, कार के रुकने की आवाज़ आई है, लगता है वो लोग आ गए। रूपल भरे मन से हल्का सा दरवाज़ा खोलकर अपने सपनों को रौंदने वाले उस सख्स की एक झलक देखने की कोशिश की। लेकिन ये क्या? ये तो रंजन था ! उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। रंजन को देखते ही रूपल का मुरझाया चेहरा खिल उठा। रंजन से नज़र मिलते ही रूपल अपनी चिरपरिचित मीठी मुस्कान से रंजन का स्वागत किया।
अब रूपल को बहुत पछतावा हो रहा था। उसने अपने बाबूजी के बारे में उल्टा-पुल्टा क्यों सोचा, वह अपनी नजरों में खुद को गिरा हुआ महसूस करने लगी। तभी अपने सर पर किसी हांथ की आहट से अचानक चौंक पड़ी। पीछे मुड़ कर देखा तो बाबूजी खड़े थे। वह छोटे बच्चों जैसी बाबूजी के गले लग गई। उसके बाबूजी के कंधे व बांह रूपल के आंसुओं से भीग चुके थे। रूपल के मुंह से बस इतना ही निकला .. बाबूजी मुंझे माफ कर देना। अरे पगली … मैं तेरा बाप हूं… तुमने मेरी इज्जत पर एक भी दाग नहीं लगने दिया तो क्या मैं तुम्हारे विश्वास को तोड़ देता। बेटा तुम्हारी खुशी में ही तो हमारी खुशी है, ये हम कैसे भूल सकते हैं। तुम्हारी मां ने मुझे सब कुछ बता दिया था। अब रूपल के दिल में मां-बाबूजी की इज्जत और बढ़ गई।

परिचय :-  सुधाकर मिश्र “सरस”
निवासी : किशनगंज महू जिला इंदौर (म.प्र.)
शिक्षा : स्नातक
व्यवसाय : नौकरी पीथमपुर
जन्मतिथि : ०२.१०.१९६९
मूल निवासी : रीवा (म.प्र.)
रुचि : साहित्य पठन व सृजन, संगीत श्रवण
उपलब्धि : आकाशवाणी रीवा से कहानियां प्रसारित, दैनिक जागरण रीवा से कहानियां प्रकाशित। वर्तमान में, महू से प्रकाशित साप्ताहिक “प्रिय पाठक” में नियमित रूप से कविताएं व लघुकथाएं प्रकाशित। अन्य साहित्य पटल पर भी सक्रिय।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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