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दो वक्त की रोटी

महेन्द्र सिंह कटारिया ‘विजेता’
सीकर, (राजस्थान)
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मासूम तरसती आँखों को,
दो वक्त की रोटी नसीब नहीं।
बालश्रम नियम सच बयां करे
ऐसा ज़माने में नकीब नहीं।।

मजबूरियों का मारा बदनसीब,
दर-दर भटकता वह गरीब है।
उम्र के हिसाब से समझाये उसे,
क्या अच्छा-बुरा न कोई हबीब है।
वक्त के हालात से मोड़ें
ऐसा कोई कबीर नहीं।
मासूम तरसती आँखों को,
दो वक्त की रोटी नसीब नहीं।…..

बालश्रम पर चर्चा
रोज हम करते है।
दशा उनकी देख
झूठी ही आहें भरतें है।
ज़माने के इस दौर में
उनके जैसा कोई यतीम नहीं।
मासूम तरसती आँखों को,
दो वक्त की रोटी नसीब नहीं।……

बालपन में औरों की भांति,
वह पढ़ क्यों नहीं पाया।
निज स्वार्थ किस मजबूरी में,
अपनों ने काम पर उसे लगाया।
अमीरी-गरीबी की मध्यस्थता का
उस जैसा कोई रकीब नहीं
मासूम तरसती आँखों को,
दो वक्त की रोटी नसीब नहीं।…..

ये बातें कड़वी-फीकी है,
इन पर शिकवा क्या कीजिए।
जीवन एक समझौता है,
ताउम्र बस घूँट-घूँट पीजिए।
शासकीय विधान से सोचें
कोई ऐसा सबील,
भविष्य हो अच्छा इनका
आओं बन जायें कलीम ।
सुनहरे राष्ट्र के सपनों में भी
मिलता आहार लतीफ़ नहीं।
मासूम तरसती आँखों को,
दो वक्त की रोटी नसीब नहीं।…..

परिचय :- महेन्द्र सिंह कटारिया ‘विजेता’
निवासी : सीकर, (राजस्थान)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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