पल दो पल की खुशियां
रचयिता : जितेंद्र शिवहरे
संध्या आज पहली बार प्रभात के साथ सफ़र कर रही थी। त्यौहार के सीज़न के कारण बस वाले छोटी यात्रा करने वाले पेसेन्जर को बस में बैठा नहीं रहे थे। उस पर जो बस वाले बैठा भी लेते तो बैठने की सीट मिलना मुश्किल थी। संध्या की समस्या अभी खत्म नहीं हुयी थी। उसने देखा सड़क पर चक्काजाम की स्थिति निर्मित हो गयी है जो इस सड़क पर एक आम समस्या थी। संध्या ने विचार किया की आज स्कूल पहुंचने में वह निश्चित ही विलंब से पहुंचेगी। स्कूल के हेडमास्टर की डांट से वह भली-भांति परिचित थी। उसका विलंब से स्कूल पहुंचने का कारण अधिकतर सड़क जाम होना ही होता था। सड़क पर वाहनों के जाम की स्थिति का हवाला देते-देते वो थक गई थी। क्योंकि हेडमास्टर चिरपरिचित इस समस्या का हल संध्या को पुर्व में बहुत बार सुझा चूके थे। या तो संध्या मोपेट से स्कूल आया करे क्योंकि मोपेट से आने-जाने में सड़क वाहनों से जाम होने पर भी यहां-वहां से बचते-बचाते निकल कर स्कूल आया जा सकता था। समस्या का दुसरा हल उन्होंने बताया था कि परिवार सहित संध्या विद्यालय के पास की ही किसी काॅलोनी में आकर रहने लगे। इससे समय और पैसा दोनों बचेगा। साथ ही व्यस्ततम इस सड़क पर यात्रा करने का जोखिम भी जाता रहेगा। इन्हीं रोजमर्रा की समस्याओं के कारण विद्यालय के हेडमास्टर भी विद्यालय के पास की एक काॅलोनी में शिफ्ट हो गये थे। क्योंकि वे समय के पाबंद और कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारी शिक्षक थे। लेकिन संध्या के लिए दोनों ही उपाय मुश्किल थे। मोपेट चलाना वह जानती नहीं थी और मोपेट सीखना अब उसके लिए लोहे के चने चबाना सरीखा था। पति का बिजनेस और उसके बच्चों की पढ़ाई दोनों ही शहर में कुशलता पूर्वक संचालित हो रहे थे, इसलिए शहर से पचास किलोमीटर दुर गांव में शिफ्ट करना उसके वश में न था। शहर में स्थानांतरण की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं दिखाई दे रही थी। पिछले दस वर्षों से वह विद्यालय और घर के बीच बस से ही डेली अप-डाउन कर रही थी। यह प्रमुख सड़क उत्तर भारत को दक्षिण भारत से जोड़ती थी। इसलिए सड़क पर वाहनों का दबाव अत्यधिक था। सड़क पर टेढ़े-मेढ़े और गहरी खाई से सटे घुमावदार घाट सड़क चौड़ीकरण में प्रशासन के लिए प्रमुख बाधा थे। उस पर राजनितिक उदासीनता के कारण बारह वर्ष पुर्व ही सड़क चौड़ीकरण का सर्वे और टेंडर होने के बावजूद अभी तक सड़क चौड़ीकरण का कार्य आरंभ नहीं हो सका है।
सड़क पर वाहन रेंग रहे थे। गर्मी ने प्रारंभ में ही अपने सख़्त तेवर दिखाना आरंभ कर दिये थे। बस में बैठी सवारियां मारे गर्मी के कश़मशा रही थी। संध्या भी बहुत बैचेन थी। उसे शीघ्र अपने विद्यालय पहूंचना था। लेकिन वह करे भी तो क्या? वह रह-रहकर अपनी कलाई पर बांधी घड़ी को देखे जा रही थी। उसके विचारों में रौबदार हेडमास्टर का चेहरा बार-बार आ रहा था जिससे उसके चेहरे पर परेशानी की लकीरें उभर आई थी। तभी संयोग से प्रभात उसी बस के आगे अपनी मोटरसाइकिल से निकल रहा था। संध्या ने प्रभात को देख लिया। उसने तुरंत प्रभात को मोबाइल किया। प्रभात ने सड़क किनारे खड़े होकर अपनी मोटरसाइकिल रोककर बात की। अगले ही पल संध्या प्रभात की मोटरसाइकिल की पिछली सीट पर बैठी थी। सड़क पर जाम से बचकर प्रभात की मोटरसाइकिल गंतव्य की ओर सरपट दौड़ी चले जा रही थी। संध्या और प्रभात एक ही संकुल के दो अलग-अलग विद्यालयों में पदस्थ थे। प्रभात भी शिक्षक है। संध्या की नियुक्ति प्रभात से दो वर्ष पुर्व की है। प्रभात भी अपने शहर के घर से गांव के स्कूल तक मोटरसाइकिल से डेली अप-डाउन करता था। दोनों का मिलना-जुलना एक ही संकुल के कर्मचारी होने के नाते तो अक्सर हो जाया करता था किन्तु कभी एक साथ स्कूल आने या जाने का साथ नहीं हुआ। संध्या पहली बार प्रभात की मोटरसाइकिल पर बैठकर अपने स्कूल जा रही थी। विद्यालय अभी कुछ किलोमीटर की दुरी पर था जिसे पार करने में लगभग तीस मिनट का समय लग सकता था। संध्या और प्रभात पहली बार इतनी खुलकर बातें कर रहे थे। प्रभात ने अपने और संध्या के प्रारंभिक दिनों की बातें छेड़ दी जब संध्या के विवाह के लिए रिश्तें खोजें जा रहे थे। संध्या की पहली मुलाकात प्रभात से उसी के घर पर हुयी थी। प्रभात अपने एक अन्य मित्र के साथ उसी के लिए संध्या को देखने गया था। प्रभात पहली ही मुलाकात में संध्या पर मोहित हो गया था। वह जानता था कि उसके मित्र से बेहतर रिश्ते की संध्या अधिकारी थी। पर वह उस समय स्वयं बेरोजगार था सो चाहकर भी अपने हृदय की बात संध्या से कह नहीं सका। आज जब यही बात संध्या से प्रभात ने कही तब संध्या को भी आश्चर्य हुआ। उसने कहा कि यही बात यदि प्रभात, संध्या से पहले कह देता तो संध्या उससे विवाह अवश्य कर लेती। प्रभात आत्मग्लानि से भर गया। संध्या भी पश्चाताप कर रही थी। यह सत्य था कि दोनो अपने-अपने विवाह से प्रसन्न नहीं थे। किन्तु आज इस मोड़ पर जब दोनों विवाहित होकर बाल-बच्चें दार हो गये है, इस भूतपूर्व प्रेम की अभिस्वीकृती पाकर दोनों के स्थिर जीवन में भूचाल सा आ गया था। प्रभात रात भर सो न सका। संध्या से हृदय खोलकर पुर्व समय पर हुई बातों को विचार कर वह विचलित हो गया। यदि वह संध्या को विवाह का प्रस्ताव उसी समय दे चुका होता तो आज वे दोनों पति-पत्नी होते। संध्या भी बैचेन थी। वह प्रभात के प्रति प्रेम की पुष्टि कर चूकी थी। उसे शिकायत यही थी यह सब जो आज प्रभात ने उसे बोला वह पहले क्यों नहीं कहा? प्रभात फिफर उठा। उसे भी इस बात की चीढ़ उठने लगी की यदि वह संध्या को सही समय पर विवाह का प्रस्ताव न दे सका तो संध्या भी तो आगे चलकर प्रभात से प्यार का इजहार कर सकती थी? पुरूष ही प्यार में पहल करे, आखिर सदियों से चली आ रही इस सनातन परंपरा को संध्या ने तोड़ने का प्रयास क्यों नहीं किया? हृदय में फांस की चुभन लिये दोनों ने सबकुछ समय पर छोड़कर अपनी-अपनी नियमित दिनचर्या को जीना सतत जारी रखी।
अगले कुछ दिन बाद प्रभात और संध्या फिर मिले। बाइक पर।
“क्या हम जीवन के वो अनमोल पल अपनी खुशी के लिए कुछ पलों के फिर से जी सकते है?” प्रभात ने अपनी बाइक की पिछली सीट पर बैठी संध्या से प्रश्न किया। मोटरसाइकिल जितनी तेजी से चल रही थी भीषण गर्मी में लू के थपेड़े भी उतने ही तेजी से चल रहे थे। संध्या के ह्रदय स्पंदन की चाल भी यकायक प्रभात के इस वाक्य के कहने भर से बढ़ गई थी।
संध्या का गला सूख रहा था। मोटरसाइकिल पर बैठे-बैठे उसने पानी के बाॅटल से पानी पीया फिर बोली- “क्या मतलब है आपका?”
सांये-सांये की ध्वनी करते हुये भारी वाहन प्रभात की मोटरसाइकिल को ओवरटेक करते हुये चले जा रहे थे। वाहनों की तेज रफ्तार, तीव्र ध्वनी और उनके धधकते अन्तःस्थावी इंजन से निकलती गर्म तेज लपटे किसी जलती हुई कोयले की भट्टी के समीप से गुजरने का प्रत्यक्ष आभास करवा रहे थे।
“मेरे कहने का सिर्फ इतना सा मतलब है कि इससे पहले कि हम अपनी अस्त-व्यस्त लाइफ में और भी व्यस्त हो जाये और इससे पहले की जीवन की शाम हो जाये, कुछ दिन हम अपने लिये जीये। हम अपनी जिंदगी फिर वहीं से शुरू करे जहां से हमारे जीवन में एक नया मोड़ आया था और फिर सबकुछ बदल गया था।” प्रभात ने रोमांचित होकर कहा।
“लेकिन अब यह सब कर के हासिल क्या होने वाला है। हम दोनों शादीशुदा है ये क्यों भूल जाते है आप?” संध्या ने याद दिलाया।
“मुझे याद है। मैं बस इतना चाहता हूं कि हम कुछ पल साथ में गुजारे। जो कस़क हम दोनों के मन में रह गई है उसे निकाले।” प्रभात बोला। प्रभात ने अपना बांये हाथ पीछे की ओर सरकाया और संध्या का हाथ अपने हाथ में ले धाम लिया।
“मगर यह तो अनैतिक होगा न?” संध्या अपना हाथ छुड़ाने की नाक़ाम कोशिश करते हुये बोली।
प्रभात दायें हाथ से मोटरसाइकिल का ऐक्सलेटलर खींच रहा था और उसके बायें हाथ में संध्या का दाहिना हाथ कैद से छूटने के लिए सकपका रहा था।
मोटरसाइकिल अपनी गति से चली जा रही थी।
“हमारे-तुम्हारे साथ जो हुआ, क्या वह नैतिक था? क्या तुम्हें और मुझे एक बेहतर जीवनसाथी नहीं मिलना चाहिए था? आज हम दोनों अपनी-अपनी जिन्दगी में सिर्फ समझौता कर बस समय निकाल रहे है और आगे भी निकालते रहेंगे। यदि इस बोझिल और कशम़कश भरे जीवन में कुछ पल आनंद और रोमांच के जुड़ जाये तो इसमें गल़त क्या है?” प्रभात बोलता ही गया।
“लेकिन लोग क्या कहेंगे?” संध्या का स्वर धीमा था। अब उसने अपना हाथ प्रभात के हाथ से छुड़ाने का प्रयास शनैः शनैः कम कर दिया था।
“वही घीसा पीटा सवाल! लोग क्या कहेंगे? लोगों के पास बहुत काम है संध्या। उन्हें हम जैसे अधेड़ भूतपूर्व प्रेमियों के विषय में सोचने की क्या पड़ी है? आईपीएल, चुनाव, आतंकवाद और बेटी बचाओ जैसे मुद्दों को छोड़कर यदि लोग हमारे विषय में चर्चा करने लगे तो समझना हम भी राष्ट्रीय मुद्दा बन गये हैं।” प्रभात ने हंसते हुए कहा।
संध्या की भी हंसी छूट गयी। उस क्षण वह भी बहुत दिनों के बाद जी भरकर हंसी। तभी हंसते-हंसते उसकी पलकों पर आंसू की कुछ बुंदे तैरने लगी।
यकायक अलार्म बज चुका। सुबह के 5 बजे थे। संध्या ने तुरंत उठकर अलार्म बंद किया। कहीं बच्चें जाग न जाये। चाय-नाश्ता बनाने के बाद ही वह पति और बच्चों को जगाती थी। संध्या कुछ पल बिस्तर पर बैठी रात के इस रोचक स्वप्न को याद कर मुस्कुरा रही थी। उसकी आंखे भीग चूकी थी। अपनी दोनों हथेलियां चेहरे पर मलकर वह उठी। अपने पास ही सो रहे बच्चों को प्यार से देखकर दोनों बच्चों के सिर को सहलाया। कुछ क्षण विचार कर स्वयं के सिर पर “थत तेरी पागल कहीं की” का धीमा स्वर उच्चारित कर संध्या चाय-नाश्ता बनाने किचन में जा कर व्यस्त हो गई।
परिचय :- नाम – जितेंद्र शिवहरे आपकी आयु – 34 वर्ष है, इन्दिरा एकता नगर पूर्व रिंग रोड मुसाखेड़ी इंदौर निवासी जितेंद्र जी शा. प्रा. वि. सुरतिपुरा चोरल महू में सहायक अध्यापक के पद पर पदस्थ होने के साथ साथ मंचीय कवि भी हैं, आपने कई प्रतिष्ठित मंचों पर कविता पाठ किया है।
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