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पता नहीं क्यों

विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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कार्यक्रमों में लेटलतीफी तो सुधरती नहीं कभी,
आमंत्रितों को समय कम होता, पता नहीं क्यों?

कुछ कवियों को शायद श्रोता रूप कबूल नहीं
अपनी सुनाकर चले जाते लोग, पता नहीं क्यों?

सुंदर संदेश कथन काव्य संपदा भगवत कृपा है
सुनने का रोग नहीं पालते कुछ, पता नही क्यों?

वक़्त वक़्त के वक्ताओं से व्यक्तित्व छाप मिलती
अनावश्यक ज्यादा बोलते कुछ, पता नहीं क्यों?

जुबान में कमान और साथ साथ लगाम है जरूरी
तर्क विहीन तथ्यों पर टिके रहते, पता नहीं क्यों?

बड़े-बड़े वादे संकल्प तो केवल प्रदर्शन रूपी शान
प्रतिबद्धता में अति गरीब रहते हैं, पता नहीं क्यों?

सम्मान कोई खेतों से उगती फसल तो नहीं विजय
पाने और काटने जैसा समझते रहे, पता नहीं क्यों?

सामान्य व्यवहारों की कद्र कर पाना मुमकिन नहीं
कुछ भला भी भुला डालते हैं लोग, पता नहीं क्यों?

कमजोर व्यक्ति की तकदीर लिखा रहता है मजाक,
कुछ रईस शान में उड़ा लेते मजाक, पता नहीं क्यों?

गलती अन्य की समझने वाला दर्पण भेंट मिल गया,
अपनी गलती की छाया नहीं उसमें, पता नही क्यों?

दंगे लूट खसोट आतंक चोरी धरपकड़ खूब होती है
कुतर्की घेरों में फंस जाती सच्चाई, पता नहीं क्यों?

घर की दीवार न बना पाए तो दूसरों की गिरा डालो
फूट डालो राज करो नीति पे अमल, पता नही क्यों?

पता करने की कोशिश में कभी पता नही मिल पाया,
बस ऐसे ही सभा गोष्ठी सेमिनार चले, पता नहीं क्यों?

थककर चूर हुए दूर हुए पता करने की कोशिशों में
द्वेष स्वार्थवश कामयाबी नहीं भाती, पता नहीं क्यों?

परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़

उद्योगपति : १९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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