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महात्मा गाँधी तथा प्रकृति

मनोरमा पंत
महू जिला इंदौर म.प्र.
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                                           एक ऐसे देश में जहाँ प्राचीन काल से ही जल जमीन और जंगल को पूजा जाता रहा, उसी देश में इन तीनों का बर्बरतापूर्वक विनाश ने गाँधीजी को अगाध दुःख में डाल दिया था। गाँधी जी के लिये मानव जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं था। प्रकृति के प्रति उनकी संवेदनशीलता बहुत विस्मयकारी थी। प्रकृति के अंधाधुंध दुरूपयोग के प्रति वे बहुत चिंतित रहते थे, उनकी चिंता के मूल में हमेशा गाँव के गरीब किसान और देश के साधारण जन रहते थे।
उनका कहना था – “हम प्रकृति के बलिदानों का प्रयोग तो कर सकते हैं, किंतु उन्हें मारने का अधिकार हमें नहीं है” गाँधीजी का यह भी कहना था कि अहिंसा तथा संवेदना न केवल जीवों के प्रति बल्कि अन्य जैविक पदार्थों के प्रति भी होना चाहिए। इन पदार्थों का अति दोहन जो लालच और लाभ के लिए किया जाता है,वह जैवमंडल को नुकसान पहुंचाता है।”
गाँधी जी का कहना था कि ऐसे देश में जहाँ मजदूरों की बहुलता है, वहाँ मशीनों का उपयोग बेरोजगारी पैदा करता है। प्रत्येक गांव में उपलब्ध प्रकृति उत्पादनों के आधार पर कुटीर उद्योग, ग्राम उद्योग स्थापित किए जाने चाहिए। इससे लोगों को रोजगार मिलने के साथ ही शहरों में जनसंख्या का बोझ तो कम होगा ही साथ ही पर्यावरण की रक्षा भी जावेगी।
गांधीजी औद्योगिकरण को मानवजाति के लिए अभिशाप इसलिए मानते थे, कि इससे पर्यावरण को इस तरह की हानि पहुँचाती है, जिसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती। आजादी के बाद भारत ने पश्चिम का अनुसरण किया तो गाँधी जी ने कहा था- “इस रास्ते पर मत जाइये, यह रास्ता तुम को तो नष्ट करेगा ही, दुनिया को भी नष्ट करेगा। ग्राम को आधार बनाकर विकास करो। ग्राम का व्यक्ति यदि खुश तो सारा देश खुशहाल होगा।”
पर हुआ उल्टा ही। आज के विकास पर एक नज़र डालते हैं। अपने ही देश के एक हिस्से को समृद्ध बनाने के लिए दूसरे हिस्से को तबाह कर देते हैं। एक बाँध को बनाने के लिए गाँव के गाँव उजड़ जाते हैं। वहां के निवासियों का गहरा रिश्ता हो जाता है अपनी मिट्टी से, अपने परिवेश से, अपने पर्यावरण से, जब वह रिश्ता टूट जाता है तो जिस दर्द से वे गुजरते हैं, वह अवर्णनीय हैं। गांधीजी जानते थे कि वन काटकर वनवासियों का विकास नहीं हो सकता।
प्रकृति का भंडार सीमित है, इस बात पर गांधी जी ने हमेशा जोड़ दिया है। उसका कहने का कहना था कि मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के पास साधन है, परंतु अब आप तभी अवास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह प्रकृति का शोषण कर उसे नष्ट करता है। हमारे पूर्वजों ने कहा है- “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथः” अर्थात् त्याग पूर्वक भोग करो। गाँधीजी मनसा विचा कर्मणा सम थे। एक दिन भोजन के पश्चात एक लोटे जल से हाथ धोने वाले बापू बातों में लग गए तो उनका ध्यान गया कि अब हाथ धोने के लिए दूसरी लौटे का जल भी इस्तेमाल कर रहे हैं, तब वे चौंक गए कि असावधानी के कारण उन्होंने दूसरे के हिस्से का जल उपयोग में ले लिया।
प्राकृतिक उत्पादनों से बनी वस्तुओं यथा पेंसिल, कागज आदि का वे पूर्ण उपयोग करते थे। टिशू पेपर का भी वे विरोध करते थे।
प्रकृति चिंतन में भी वे स्वच्छता पर भी बहुत जोर देते थे, कुआँ, तालाब या नदी को गंदा करना, वायुमंडल और घर को दूषित करना वे पापाचार मानते थे।
नारद पुराण में भी कहा गया है-
जले-वापि यस्त्यदहजं मलम्। भ्रूणहत्या म पाप स प्राप्त्यत्यति दारूण।
जो मनुष्य जल में विष्ठा कफ और मूत्र का विसर्जन करते हैं, उन्हें भ्रूणहत्या के बराबर पाप लगता है।
यमुनोत्री से निकलने वाली यमुना दिल्ली में प्रवेश करते ही गंदे बदबूदार नाले में बदलने लगती है। यमुना की सहायक हिंडन और गंगा की सभी सहायक नदियाँ, प्रदूषण से कराह रही है। कमोवेश देश की सभी नदियों के यही हाल हैं। हम देखते हैं कि गाँधी जी प्रकृति के मामले में आज भी उतने खरे हैं, जितने पहले थे।

परिचय :-  श्रीमती मनोरमा पंत
सेवानिवृत : शिक्षिका, केन्द्रीय विद्यालय भोपाल
निवासी : महू जिला इंदौर
सदस्या : लेखिका संघ भोपाल जागरण, कर्मवीर, तथा अक्षरा में प्रकाशित लघुकथा, लेख तथा कविताऐ
उद्घोषणा : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।

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