डॉ. सर्वेश व्यास
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान, रिश्तो के प्रति समर्पित, धीर-गंभीर प्रवृत्ति, कर्तव्यनिष्ठ, जीवन को संजीदगी से जीने वाले, अल्प आयु में अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करने वाले व्यक्तियों में प्रायः अपरिभाषित रूप या अनचाहे रूप से छुपी हुई एक आत्मग्लानि, शिकायत, मलाल, वेदनाा, संताप, अवसाद, व्यथा रहती है कि उन्होंने अल्प आयु में अपने कर्तव्यों को स्वीकार कर, उनका निर्वहन करना प्रारंभ कर दिया वह पूर्णतः दूसरों के लिए जीते रहे इस कारण वे अपने जीवन को पूर्णतः अपने तरीके से नहीं जी पाएl जीवन का उन्मुक्त आनंद नहीं ले पाए l कर्तव्य के पालन में उन्होंने बहुत कुछ पीछे छोड़ दिया l अतः वे लोग कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए, रिश्तो के प्रति ईमानदार रहते हुए, उन्हें निभाते भी हैं और घुटते भी रहते हैं l उन्हें लगता है कि यह कर्तव्य, यह आदर्श ही हमारा जीवन है, यही उद्देश्य है इसी विचार के कारण वह अपने आप से दूर होते रहते हैं, किसी से कुछ नहीं कहते l बाह्य दृष्टि से तो वे प्रसन्न रहते हैं लेकिन अंतर्मन में उन्हें अपरिभाषित, अनचाही निराशा, हताशा घेर लेती है l एक कमी उनके जीवन में सदैव रहती है, जो कभी प्रदर्शित नहीं होती l केवल उसे महसूस करना पड़ता है या समझना पड़ता है , जो सभी के लिए संभव नहीं है l अपने परम स्नेही मित्र मे भी मैंने यह भाव महसूस किया, मैं उन्हें बहुत कुछ कहना चाहता था लेकिन कह नहीं पाया और विचारों में खो गया l क्या इनका जीवन ऐसे ही बीतता रहेगा ? यह ऐसे ही जीते रहेंगे या यूं कहें जीवन को ढोते रहेंगे ? क्या यह जीवन के असीम आनंद से यूं ही दूर रहेंगे? क्या यह अपने आप से ऐसे ही लड़ते रहेंगे ? यह जीवन का परम सुख कैसे प्राप्त करेंगे ? मैं इन्हीं विचारों में खो गया l इन्हीं विचारों में मेरा मन सीधा रुका श्रीरामचरितमानस के अयोध्या कांड में, जहां राम के राज्याभिषेक की तैयारियां चल रही हैं, अगले दिन राम का राज्याभिषेक होना था, तभी अचानक राम के पास बुलावा आता है l पिता तो मूर्छित अवस्था में तो आज्ञा कैसे देते , किंतु केकई माता के मुख से पिता की मूर्छा का कारण जानकर स्वयं अपने कर्तव्य को ओढ़ लेते हैं और युवराज राम से वनवासी राम बन जाते हैं l उस समय उनकी स्थिति बताते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं कि “मन मुसुकाई भानु कुल भानू l राम सहज आनंद निधानू” l l यह बाह्य आनंद नहीं था, यह आंतरिक आनंद था l हम श्रीराम की संताने हैं जहां प्रभु श्री राम को अपने कर्तव्यो के निर्वहन में असीम आनंद की प्राप्ति होती है, वही हमें संताप, अवसाद , व्यथा, वेदना क्यों ?
चूँकि मैं वाणिज्य संकाय का विद्यार्थी हूं अतः मेरा मन दौड़ते दौड़ते लेखांकन की उस आधारभूत अवधारणा पर गया, जिसे व्यवसाय के पृथक अस्तित्व की अवधारणा कहते हैं l इस अवधारणा के अंतर्गत व्यवसाय का उस के स्वामी से पृथक अस्तित्व होता है l दोनों पृथक पृथक इकाइयां हैं l व्यापार को प्रारंभ करने वाला कौन ? उसका स्वामी l उसे संचालित करने वाला कौन ? उसका स्वामी l व्यापार के लाभ और हानि का वहन कर्ता कौन ? उसका स्वामी l फिर भी व्यवसाय का उसके स्वामी से अस्तित्व पृथक होता है l जैसे राजू भैया ने राहुल ट्रेडर्स नामक व्यापार प्रारंभ किया l सबको पता है कि राहुल ट्रेडर्स राजू भैया की दुकान है l व्यापार में पूंजी राजू भैया ने लगाई, दुकान भी राजू भैया की है फिर भी वह पूंजी, वह धन व्यापार की संपत्ति नहीं वरण व्यापार का दायित्व है l इसे चिट्ठे में दायित्व पक्ष में दिखाया जाता है l ऐसे ही व्यापार में होने वाला लाभ राजू भैया का ही है, फिर भी व्यापार के लिए वह दायित्व l अतः व्यापार का संचालन निर्विघ्न , व्यवस्थित होता रहे l व्यापार का स्वामी उसे अपनी संपत्ति समझ कर उसका अति विदोहन ना कर सके इसलिए उसकी सीमा या मर्यादा निर्धारित कर दी गई l राजू भैया प्रतिदिन लगभग 12 से 14 घंटे व्यापार को देते हैं, शेष बचे 10 घंटे में से लगभग 6 से 7 घंटे सोते हैं l इस अनुसार परिवार को 4 से 5 घंटे ही दे पाते हैं l उनके व्यापार को ज्यादा समय देने एवं परिवार को न्यूनतम समय देने के बावजूद, जो लगाव, जो आत्मीयता परिवार के प्रति है, वह व्यापार से कई गुना ज्यादा है l उनका अपने परिवार के साथ जो अटूट संबंध है, उस पर ऐसे सौ व्यापार न्योछावर, क्योकिं उन्हें पता है कि परिवार के लिए व्यापार है ना कि परिवार व्यापार के लिए l वह इस अंतर को जानते हैं, तभी तो परिवार से ज्यादा समय व्यापार को देते हैं , फिर भी राजू भैया व्यापार नहीं, व्यापार से अलग इकाई है l इसीलिए उनके पारिवारिक रिश्ते व्यापारिक क्रियाओं के प्रभाव से रहित है और वह प्रसन्नचित्त रहते है l मुझे ऐसा लगता है कि जब हम समाज में परिवार में एकाकार हो जाते हैं, अपने अस्तित्व को उसमें समाहित कर देते हैं, तब उनकी प्रत्येक क्रिया का हम पर प्रभाव पड़ता है l “कभी खुशी कभी गम” l फिर हमें ढेरों शिकायतें, संताप, दुख, रंज, ग्लानि, अवसाद, व्यथा, वेदना, मलाल सब होते हैं l फिर हमें अपने निष्कपट, सरल, निश्चल, उदार, निष्ठावान, कर्तव्य परायण, समर्पित मन पर भी गुस्सा आता है l हम अपने आप से सवाल करते हैं क्या हम जो कर रहे हैं वह सही है ? हमने अपने कर्तव्यों को ओढ़ लिया और जीवन का आनंद न जाने कहां चला गया और न जाने क्या-क्या तर्क वितर्क ? इन तर्क वितर्क और पीड़ा का एक मात्र कारण जो मुझे समझ में आता है वह है, अपने अस्तित्व को, रिश्तों के अस्तित्व में मिला देना, उन के अस्तित्व को अपने अस्तित्व पर ओढ़ लेना और इस से बचने का, जीवन का पूर्ण, अविरल, निरंतर, एकरस, असीम आनंद लेने का एकमात्र उपाय है – पृथक अस्तित्व की परिकल्पना l हमारे आसपस या समाज के प्रति, परिवार के प्रति सारे कर्तव्य, नियमों, सीमाओ, मर्यादाओं को निष्ठा से निभाते हुए , मेरे स्वयं का भी एक अस्तित्व है और वह इन सबसे अलग है इस मान्यता को दृढ़ करना होगा l अगर मैं 24 घंटे पूर्णरूपेण समाज को समर्पित कर भी दूं , तब भी मैं उन सारे रिश्ते, नातो, कर्तव्यों से अलग अस्तित्व हूं l मेरी प्रसन्नता, मेरा आनंद इन पर आश्रित नहीं है l मेरा आनंद मैं स्वयं हूं, जो अंतरंग है l समाज में तो सारी मर्यादाओं, सीमाओ में रहकर उनका पालन पूर्ण निष्ठा से करता हूं किंतु मेरी चेतना, मेरी मान्यताएं, मेरी भावनाएं, मेरा मनोराज्य मेरे मन में आनंद का संचार करती/ करता है, इन्हीं विचारों को ओढ़ना होगा l मन को अपनी ओर खिचना होगा, यह मान्यताएं दृढ़ करना होगा l अपने आप को प्रेम से सराबोर करना पड़ेगा, जब तक जीवन में प्रेम है, तब तक आनंद है l कभी-कभी यह सुनने में आता है कि हम तो पूरी उम्र कामों में लगे रहे, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों में ढोते रहे और उम्र यूं ही बीत गई, हम जीवन का आनंद नही ले पाये l मुझे यह विचार भी हास्यास्पद लगता है और कबीर की पंक्तिया याद आती हैं कि ” पानी में मींन पियासी, मोहे सुन सुन आवे हासी ” l जीवन जीने के लिए, जीवन को आनंद पूर्ण बनाने के लिए उम्र कभी बाधक नहीं हो सकती, जब जागो तभी सवेरा l मैं ऐसे कई युवाओं को जानता हूं जो कि आनंद शब्द को ही भूल चुके हैं, तनाव ग्रस्त जीवन जी रहे हैं l कभी पढ़ाई का तनाव तो कभी रोजगार का तनाव, कभी अच्छे जीवन साथी के मिलने ना मिलने का तनाव और बाद में पारिवारिक जिम्मेदारियों का तनाव, तनाव और केवल तनाव l वे यह भूल जाते हैं कि जीवन पशु तुल्य बोझा ढोने के लिए नहीं है, वह तो जीवन में नित नवीन आनंद खोजने और भरने के लिए है, साथ ही समाज मे आनंद बांटने के लिए है l लेकिन इससे उलट वे खुद भी तनावग्रस्त रहते हैं और अपने आसपास के वातावरण को भी तनाव से भर देते हैं , कारण व्यक्ति के पास जो होगा, वही तो बाँटेगा, वह प्रसन्न होगा, आनंद मग्न होगा, प्रेम पूर्ण होगा तो प्रसन्नता, आनंद और प्रेम बाँटेगा l अतः अपने जीवन को प्रेम पूर्ण बनाओ, आनंद रुपी खजाने से जीवन को भर दो और खूब बांटो l आपके सामने जो भी रिश्ते हैं – माता का, पिता का, पत्नी का, पति का, भाई का, बहन का, ननंद का, देवर का, साले का, साली का, ससुराल का, मायके का, बच्चों का, समाज का, व्यापार का, रोजगार का उन्हें पूर्ण निष्ठा एवं ईमानदारी से निभाएं लेकिन अपने साथ भी न्याय करें और अपने अस्तित्व की रक्षा करें, वो कहते है ना “बड़े लोगों से मिलने मे जरा फ़ासला रखना, क्योकिं जब दरिया सागर में मिल जाता है, तो वह दरिया नही रहता l” इसलिए अपने अस्तित्व को रिश्तो के, कर्तव्य के अस्तित्व से कभी मिलने नही देना l जैसे श्री राम ने हर मर्यादा का पूर्ण कटिबद्धता से पालन किया लेकिन जो उचित नहीं था, उसे कभी स्वीकार नहीं किया यथा अश्वमेध यज्ञ के समय सभी ने आग्रह किया कि बिना पत्नी के यज्ञ संभव नहीं है, अत दूसरा विवाह कर ले, तो उन्होंने कहा कि वे यज्ञ नहीं करेंगे लेकिन दूसरा विवाह नहीं करेंगे l तभी शास्त्रों से मार्ग खोजा गया एवं स्वर्ण की प्रतिमा रूपी सीता से यज्ञ संपन्न करवाया गया l इससे एक शिक्षा यह भी मिलती है कि अगर हमारे अंदर दृढ़ता है तो हमारे हर कर्म में सहायता परमात्मा करते है l हमें केवल समाज के सामने अपने कर्तव्य को देखना है एवं उनका बिना राग द्वेष के उसका पालन करना है, बाकी हमारा अपने प्रति कर्तव्य, हमारी मान्यताएं, हमारी दृढ़ता अपनी जगह l जैसे जिस पति श्री राम ने अपनी पत्नी सीता के लिए एक साम्राज्य को विध्वंस कर दिया, परम प्रतापी, त्रिलोकी विजय रावण से लोहा ले लिया, वही राजाराम ने प्रजा के लिए रानी सीता का परित्याग कर दिया लेकिन पति राम वैसे ही रहे जैसे वन में सीता रहती थी, जमीन पर सोना, उपवास, सात्विक भोजन आदि l राजा राम ने संपूर्ण दृढ़ता से कर्तव्यों का पालन करते हुए, शासन संचालित किया तभी तो वह आनंद के धाम कहे जाते हैं एवं उनका नाम लेते ही चित्त को आराम मिलता है l अगर हम भी अपने नित्य कर्तव्यों का पालन करते हुए, अपनी चेतना, अपने कल्पनाओं, अपने सिद्धांतों, अपनी भावनाओं, अपनी मान्यताओं को जीवित रखते हैं तो हम जीवन को आनंद से भर सकते हैं l इसके लिए अति आवश्यक है, अपने अस्तित्व को बनाए रखना, बचाए रखना और पृथक अस्तित्व की परिकल्पना को साकार करना l
परिचय :- डॉ. सर्वेश व्यास
जन्म : ३० दिसंबर १९८०
शिक्षा : एम. कॉम. एम.फिल. पीएच.डी.
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
लेखन विधा : व्यंग्य, संस्मरण, कविता, समसामयिक लेखन
व्यवसाय : सहायक प्राध्यापक
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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