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मिथिला की लोककला और संस्कृति

प्रीति कुमारी
शेक सराय (नई दिल्ली)

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भारतीय दर्शन मनुष्य जीवन को एक उत्सव के रूप में देखता है। ऐसा उत्सव जो इस ब्रह्माण्ड में जीवन की पूर्णता को प्रकाशित करता है। इस उत्सव को मनाने के लिए ही संस्कृति का निर्माण हुआ है। और इस संस्कृति की प्राण धाराएं हैं-लोक-कलाएं। जीवन-उत्सव को नृत्य, चित्रकला, कथा, लोक-रंजन की विविध विधाओं के माध्यम से प्रकट करने के पीछे मनुष्य की यही आत्यंतिक भावना है कि वो सृष्टि के रंगमंच पर अपने अस्तित्व का प्रदर्शन कर सकें।
मिथिला चित्रकला इसी दिशा में एक जीवंत कला-यात्रा के रूप में सामने आती है। इसमें चटकीले रंगों, सजीव चित्रों और विस्तृत रूप-आकृतियों से संस्कृति की सम्पन्नता का दर्शन होता है। यूँ तो यह बिहार और नेपाल के मिथिला क्षेत्र की पारंपरिक लोक कला है पर अपने उत्स-भाव की ऊर्जा के सहारे सिर्फ देश के अलग-अलग क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि दूर-दराज विदेशों में भी इसने मधुबनी पेंटिंग के नाम-रूप से अपना ऊँचा स्थान बना लिया है। कभी वर्षों पहले बिहार के मधुबनी जिले के जितवारपुर गांव की सीता देवी के हाथों से फूटा यह कला-अंकुर अब जगप्रसिद्ध लोक-कला के रूप में बड़े-बड़े कला-समारोहों और अभिजात्य वर्ग के मन-ठिकानों का स्थापित सौन्दर्य-वृक्ष बन चुका है।
मधुबनी कला का श्रेय निजी घरेलु मांगलिक अवसरों में रंग भरने की मासूम कोशिशों को दिया जा सकता है। पर ऐसा प्रतीत होता है कि बड़े होने पर भी हम सबके भीतर जो बच्चा रहता है, वो अनुकूल अवसर आने पर इस विधा का दामन थामकर कूद कर बाहर आ गया है। भले ही, उसके उत्स में सांस्कृतिक कथा विषयों और उसी प्रकार के रंगों की प्रमुखता रही हो पर उसके हाथों में सृजन की स्वतंत्रता ने पूरी तस्वीर बदल कर रख दी है।
शुरुआत तो हुई ब्राह्मण महिलाओं द्वारा त्यौहारों व शादी-विवाह के दौरान घरों को सजाने के लिए बनाई गई कलाकृतियों से। तब इसमें परम्परा की छाप अधिक थी। ग्रामीण सरलता के भावों की भीनी गंध थी। मन की पगडंडियों के सहारे प्राकृतिक और पौराणिक बिम्बों तक रंगों की यात्रा करने का उत्साह भी था। पारम्परिक तौर पर ताज़ा पुती गोबर-मिटटी की दीवारों पर और फर्श पर इसकी झलक उतरनी शुरू हुई। और ख़ास बात यह थी कि एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में यह कला सीमित रही। हालाँकि यह कला पीढ़ियों को आगे विरासत में भी मिली पर इसमें विषयवस्तु और चित्रण का ढंग मोटे तौर पर वही रहा, बदला नहीं।
जब यह कला आरम्भ हुई तो इसमें मनुष्य के प्रकृति से संबंध, लोकप्रिय रिवाजों और पौराणिक पात्रों के प्रसंगों की मन को छू लेनेवाली चित्रकला ने सबको अपना चहेता बना लिया। इसे मांगलिक अवसरों पर अपने मनोभावों को हिन्दू पौराणिक कथाओं की चित्रावली के रूप में घर की दीवारों पर उकेरने की विधा के रूप में पहचान मिली हुई है। इसमें प्रकृति और धार्मिक इतिहास के प्रमुख लोकप्रिय पात्रों को अपने मनमुताबिक अंदाज में उकेरा जाता है। राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सामाजिक उत्सव, शादी समारोह, शाही दरबार, सूर्य,चंद्रमा और घर में भक्ति दात्री तुलसी आदि के चित्रों का रेखांकन किया जाता है।
रेखाकृतियों में चटक रंगों के साथ सांचा उभरता है जोकि इस कला की उत्सवधर्मिता को दर्शाता है। प्रचलन में जो आकृतियाँ हैं, उनमें आदिवासी और ग्रामीण जनजाति के रूपांकन प्रधानता लिए हुए हैं। मटियाले रंगों में उतरे ये भीति-चित्र मन को शीतलता देते हैं तो मस्तिष्क को युगों पुरानी कथाओं के पात्रों से मिलवा देते हैं। ये स्मृतियों के ऐसे द्वार पर दस्तक देते हैं जहाँ भीतर सांस्कृतिक धरोहर संजोकर रखी हुई है। इस चित्रकला में प्रयोग में आनेवाले रंग द्रव्य या रंजक मूलतः खनिज हैं। इसमें रुई पर सींक लगाकर ब्रश बनती है
इन चित्रों में खाली जगहों को भरने के लिए फूलों, पत्तियों, पशु-पक्षियों और ज्यामिती डिज़ाइन प्रयोग में लाए जाते हैं। चित्रों में रंग भरने के लिए अधिकांशतः पत्तियों, फूलों और फलों से निकाले गए प्राकृतिक रंगों का ही इस्तेमाल होता है। मिथिलांचल में ९० फ़ीसदी घरों में महिलाएं अब इस कला की चितेरी हैं। सीता देवी को भारत रत्न समेत कई राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होने के साथ ही मधुबनी कला ने भी प्रसिद्धि के नए आयाम अर्जित किए हैं। कला की पहुँच और पकड़ की इतनी धाक है कि अब यही चित्रकला इस ग्रामीण अंचल में रहने वाले हर निवासी की आमदनी का प्रमुख स्त्रोत बन चुकी है।
इस चित्रकला को मिथिला क्षेत्र में पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत के रूप में महिलाओं द्वारा आगे बढ़ावा दिया जाता रहा है। १९६० में भरनी और तांत्रिक अंदाज़ में ये कलाकृति बननी आरम्भ हुई थी। अधिकांशत: देवी-देवता ही इसके विषयवस्तु थे। और यूँ तो मधुबनी चित्रकला पर महिलाओं का विशेषाधिकार है पर हाल के वर्षों में इसकी मांग बढ़ने की वजह से पुरुष भी इस मनोभाव-केन्द्रित कला क्षेत्र में खुलकर सामने आने लगे हैं जोकि इस कला के विस्तार के लिए अच्छा संकेत है। इन चित्रों की सबसे ख़ास बात है- विषय को चटकीले और मटियाले रंगों में प्रस्तुत करना। यही विशेषता इन्हें सभी वर्गों में लोकप्रिय भी बनाती है। मिथिला कला शिल्पी विभिन्न खनिज रंगों का उपयोग करते हैं जो सीधे प्रकृति से प्राप्त किए जाते हैं, जैसे काला रंग प्राप्त करने के लिए काजल और गोबर का मिश्रण प्रयोग में लाया जाता है; लाल रंग कुसुम के फूल के रस या फिर लाल चंदन की लकड़ी से लिया जाता है, इसी प्रकार पीला रंग हल्दी अथवा पराग अथवा नीबूं और बरगद की पत्तियों के दूध से मिलता है। हरा रंग बेल (वुडसैल) वृक्ष की पत्तियों से और सफेद रंग चावल के चूर्ण से लिया जाता है। संतरी रंग पलाश के फूलों से तैयार किया जाता है। और यह कार्य ताजी पुताई की गई अथवा कच्ची मिट्टी पर किया जाता है।
हालाँकि, व्यावसायिक प्रयोजनों के लिए मधुबनी चित्रकारी को अब कागज़, कपड़े, कैनवास आदि पर उकेरने का चलन बढ़ रहा है।
मिथिलांचल कला संस्कृति व ऐतिहासिक धरोहर की भूमि है। परन्तु एक तरफ बदलती जीवनशैली के साथ इसके प्रतिड लोगों का आकर्षण बढ़ा है वहीँ दूसरी ओर, इस चित्रकला ने भी देश में पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों को खासा संबल दिया है। जैसे-जैसे बिहार में जंगल-जमीन की लड़ाई तेज हुई, मधुबनी चित्रकला के पात्रों के साथ चित्रित किए गए स्थानीय वृक्षों के बचाव की मुहिम की तरफ कई जागरूक स्वयंसेवी संस्थाओं का ध्यान गया। ये वृक्ष देवी–देवताओं की प्रतिमाओं, युगल रूपों-राधा–कृष्ण, राम-सीता और महाभारत, रामायण एवं अन्य पौराणिक कथा-प्रसंगों में उपस्थित रहते आए हैं।
१९६९ में मधुबनी चित्रकला को पहले-पहल अधिकारिक रूप से तब मान्यता मिली जब इस कला की प्रथम चितेरी सीता देवी को बिहार सरकार ने राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया। उसके पश्चात, ममता देवी, जगदम्बा देवी आदि कई ऐसी कलाकार हैं जो राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार प्राप्त कर चुकी हैं। घर के आँगन से आरम्भ हुई इस कला यात्रा के एक सिरे पर कला पुरोधा सीता देवी हैं जिन्हें १९८१ में पदमश्री,१९८४ में भारत रत्न और २००६ में शिल्प गुरु से सम्मानित किया जा चुका है और दूसरी और जगदम्बा देवी के परिवार के नौजवान कलाकार नारायण लाल कर्ण और मोती कर्ण हैं जो २००३ में संयुक्त रूप से राष्ट्रिय पुरस्कार जीत चुके हैं। केवल महिलाओं के एकाधिकार भरे इस रचना संसार के भीतर पुरुषों की इस पहुँच को मधुबनी की यात्रा की सार्थकता का वर्तुल पूरा हुआ मानने में कोई हर्ज नहीं है! निश्चित ही यह एक विलक्षण कला-क्षेत्र है जिसमें महिलाओं की स्थापित किसी विधा को पुरुषों ने अपनी लगन और मेहनत से अपनाने में स्वयं को गौरवान्वित महसूस किया हो!

परिचय :-  प्रीति कुमारी
निवासी : शेक सराय, (नई दिल्ली)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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