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मैं मज़दूर

विष्णु दत्त भट्ट
नई दिल्ली

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मैं मज़दूर
घर से बहुत दूर
लालसा में
दाल, भात, नून की
रोटी दो जून की,
मुन्ने को, मुनिया को
अपनी प्यारी सी दुनिया को
ममता की छाँव को
छोड़कर गाँव को
नदी को नहर को
आ पहुँचा शहर को।
खाली बैठना
बेमतलब ऐंठना
काम से जी चुराना नहीं था गँवारा
मेहनत से अपनी शहर को सँवारा।
कैसी करते हैं बात
लगा रहा दिन रात
आँधी, बारिश, सर्दी, गर्मी
हालात चाहे जो हों
मैं कभी नहीं डरा
और पूरी ईमानदारी से
शहर की तिजोरियों को भरा।
सूखी रोटी संग पीकर जल
सजाए हमने जिनके महल
जुटाए जिनके लिए
ऐश्वर्य के साधन,
कितना संकुचित निकला उनका मन
सोच कर देखिए भाई
जब कोरोना ने मुसीबत ढाई
तो
बिना देर किए
मदद करने की बजाय
कैसे मुँह फेर लिए
मानो जानते न हों
पहचानते न हों,
ये धन्ना सेठ
धन के नशे में इतने चूर हैं
कोरोना से ज्यादा तो
ये महलों वाले क्रूर हैं।
वाह रे देश के नेता!
जरूरत पड़ने पर
गधे को भी बाप बना लेते हैं
और मतलब निकलने पर
इंसान को मरने के लिए छोड़ देते हैं।
इनके दिलों में न जाने कितना खोट है
इनके लिए तो इंसान मात्र एक वोट है।
कोरोना!
तेरे आने से एक काम चंगा हो गया
सारे शहरों का चरित्र नंगा हो गया।
जेठ की चिलचिलाती दोपहर
छोड़कर मतलबी शहर
याद करके ममता की छाँव को
फिर चल पड़ा मैं गाँव को।
शहरवालो, मैं जानता हूँ
तुम हमें अपना नहीं पाओगे
पर इतना भी बता दूँ
मैं मज़दूर हूँ
इतनी आसानी से मेरे हौसले को
तोड़ भी नहीं पाओगे।

परिचय :- विष्णु दत्त भट्ट
निवासी : नई दिल्ली
शिक्षा : एम.ए है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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