सलिल सरोज
नई दिल्ली
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हिन्दी कविता ने बहुधर्मिता की विसात पर हमेशा ही अपनी ज़मीन इख्तियार की है। इस बात की पुष्टि हर युग के कवियों द्वारा की गई कृत्यों से प्रतीत होती रही है। हिंदी कविता ने रामधारी सिंह दिनकर की क्षमता का उपयोग कर के राष्ट्र आह्वान का मार्ग प्रशस्त किया और साथ ही साथ आम आदमियों की दिक्कतों और रोज़मर्रा की समस्याओं को भी बेहद गंभीरता से उजागर किया है। अगर कोई साहित्य उस वर्ग की बात नहीं कर पाता जो मूक और बधिर है तो फिर साहित्य को अपने नज़रिये को बदलने की महती आवश्यकता होती है। रामधारी सिंह दिनकर सरीखे कवियों ने अपनी लेखनी में जनमानस की विपरीत परिस्थितियों का सजीव चित्रण ही नहीं किया बल्कि धनाढ्य और रसूखदारों पर करारा प्रहार भी किया और यह प्रश्न अक्षुण्ण रखा कि गरीबी और लाचारी के लिए क्या गरीब स्वयं जिम्मेदार है या फिर वह वर्ग भी जिमीदार है जिसकी वजह से वे गरीब हैं। प्रजातंत्र में राजतंत्र को हावी होते देख कर वह बोलते हैं-
“अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली ! तू क्या कहती है ?
तू रानी बन गई, वेदना जनता क्योँ सहती है ?
सबके भाग दबा रक्खे है किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता, किस घर में ?”
जब आज़ादी की खुमार में देश के माई-बाप खुशी से फूले नहीं समा रहे थे, तब उन्हें इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि आज़ादी सिर्फ किसी ख़ास वर्ग की जागीर नहीं है और इस विसंगति से उत्पन्न रोष और असंतोष में कितने ही लोग दो जून की रोटी की तलाश करने के लिए बाध्य हैं। इसी श्रेणी में सुदामा पांडेय धूमिल आम आदमी की पीड़ा को आम आदमी की भाषा में ही लिखते हैं और शासक वर्ग पर कुशाग्र व्यंग्य भी करते हैं। उनकी कविता में राजनीति पर जबरदस्त आघात है। आजादी के बाद सालों गुजरे पर आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, अतः सारा देश मोहभंग के दुःख से पीड़ित हुआ। इन पक्तियों में धूमिल की मूल काव्य संवेदना में से समानता की मांग, आम आदमी का नजरिया, सजग होने का आवाहन, परिवर्तनीयता, शोषित-पीड़ित व्यक्ति का बयान, सामनेवाले व्यक्ति को आंकने की क्षमता, अनुभव से परिपूर्णता है। आम आदमी के सामने धूमिल की कविता जीवन सत्य उघाड़कर रख देती है।
“आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है,
फिर भी मुझे ख़याल यह रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है।”
धूमिल की वाणी में दम गोंडवी के तेवर ने और ज्यादा तेज़ और धार प्रदान की। हिंदी कविता को आम आदमी के चबूतरे तक ले जाने वाले कवियों में दम गोंडवी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अदम गोंडवी ने अपने जज़्बातों के इजहार के लिए ग़ज़ल का रास्ता चुना। अदम की कालजयी रचनाएं, बेबाक शैली, सामंतवाद के खिलाफ बगावत की लेखनी तथा शोषितों की आवाज को बुलंद करने का जज्बा जीवन पर्यंत याद आती रहेंगी। अदम जी में जितनी छटपटाहट थी, गरीबी और मुफलिसी के प्रति चिंता थी, जितना जोश था, वह उनके काव्य में भी है। उनकी शायरी, आम आदमी के सुख-दुख की मुखर अभिव्यक्ति है। इसी कारण वे बगावती तेवर भी अपनाते हैं। वास्तव में यह इस देश की जनता ही है जिसने गोरखनाथ, चंडीदास, कबीर, जायसी, तुलसी, घनानंद, सुब्रमण्यम भारती, रबींद्रनाथ टैगोर, निराला, नागार्जुन और त्रिलोचन की रचनाओं को बहुत प्यार से सहेज कर रखा है। वह अपने सुख-दुख में इनकी कविताएं गाती है। अदम गोंडवी भी ऐसे ही कवि थे। उन्होंने कोई महाकाव्य नहीं लिखा, कोई काव्य नायक सृजित नहीं किया बल्कि अपनी ग़ज़लों में इस देश की जनता के दुख-दर्द और उसकी टूटी-फूटी हसरतों को काव्यबद्ध कर उसे वापस कर दिया। आज़ादी के बाद के भारत का जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अनुभव है, वह अदम की कविता में बिना किसी लाग-लपेट के चला आता है। उन्होंने अपने कहन के लिए एक सरल भाषा चुनी, इतनी सरल कि कुछ ही दिनों में उत्तर भारत में किसी भी कवि सम्मेलन की शोभा उनके बिना अधूरी होती। उन्होंने लय, तुक और शब्दों की कारस्तानी से हटकर जनता के जीवन को उसके कच्चे रूप में ही सबके सामने रख दिया। वे जनता के दुख-दर्द को गाने लगे।
“आइए, महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएं में डूब कर”
कविता के द्वारा सटीक व्यंग्य करने की ताकत क्या होती है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है बाबा नागार्जुन की विद्रोह के स्वर में लिपटी कविताओं में। बाबा का व्यंग्य ही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी और व्यंग्य आसान नहीं है। कहा जाता है कि बाबा को इस दिशा में महारथ हासिल थी। व्यंग्य का इससे अच्छा स्वरुप क्या होगा कि जब कोई आपसे मिलने आए तो आप मेहमान का स्वागत व्यंग्य से करिए। स्वागत और व्यंग्य पर भी बाबा से सम्बंधित एक प्रसंग जुड़ा है। कहते हैं कि जब आजादी के बाद ब्रिटेन की महारानी अपने भारत के दौरे पर आई तो उनके स्वागत में बाबा ने एक कविता लिखी थी जिसमें उन्होंने तब के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर निशाना साधा था। बाबा ने कहा था कि-
“रानी आओ हम ढोयेंगे पालकी
यही हुई है राय जवाहर लाल की
रफू करेंगे फटे पुराने जाल की
आओ रानी हम ढोएंगे पालकी”
बाबा नागार्जुन को एक कड़वा कवि माना जा सकता है। बाबा नागार्जुन की कवितों का मूल स्वर जनतांत्रिक है, जिसे उन्होंने लोक संस्कार, मानवीय पीड़ा और करुणा से लगातार सींचा है। वे ऐसे कवि थे जो अपने स्वरों को खेतों-खलिहानों, किसानों–मजदूरों तक ले गए हैं। जिसने उनके दर्द को जिया और उसे कागज पर उकेरा। बाबा अपनी रचनाओं से बार-बार हम पर चोट करते दिखे, उन्होंने बार-बार हमारी मरी हुई संवेदना को जगाने का प्रयास किया। आम आदमी को हिंदी कविता में सशक्त पहचान देने में दुष्याणी कुमार का योगदान अविस्मरणीय रहा है। दुष्यंत की ग़ज़लों की मूलतः दो उपलब्धियां रहीं। एक तो यह कि उन्होंने शायरी को मुल्क से जोड़ा और मुल्क की हालिया परिस्थितियों पर शायर की नज़र केंद्रित की। ऐसा नहीं है कि उससे पहले राष्ट्रीय काव्य लिखा ही नहीं गया। दिनकर जैसे राष्ट्र कवि रहे और आजादी के संघर्ष के समय रामप्रसाद बिस्मिल जैसे शायर रहे जो ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ जैसी अमर ग़ज़लें लिख गए। कई देशभक्ति से ओत-प्रोत कवितायें भी लिखी गई। पर दुष्यंत ने इस मुल्क की व्यवस्था के सामने आदमी की बे सी को इतना सशक्त और चुभने वाला स्वर दिया जो उससे पहले नहीं दिया गया और न ही उतनी चीर कर रख देने वाली पंक्तिया कोई उन के बाद दे पाया। देश में गरीबी व्याप्त है, आम आदमी की तस्वीर उन से अच्छी कौन खींच सकता है-
“भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ
गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं
पेट भर कर गालियाँ दो आह भर कर बद-दुआ
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ”
आम आदमी की छटपटाहट की बात तब तक पूरी नहीं लगती जब तक कि रामशंकर विद्रोही की कविताओं की बात ना कर ली जाए। विद्रोही खुद को जनता का कवि कहते थे और अंग्रेजीदां जेएनयू कैंपस में ठेठ भाषा में कविताई करते थे। उन्हें जानने वाले बताते हैं कि वे खुद को कबीर की मौखिक परंपरा से जोड़ते थे और कभी उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया उनकी कविता कहीं छपे। विद्रोही का दिमाग सिर्फ और सिर्फ कविता के लिए बना था। वे अपनी कविताओं को अपने दिमाग में संग्रह करते थे, ठीक उसी तरह जैसे कालिदास, कबीर, सूर, तुलसी आदि की तमाम कविताएं उन्हें जबानी याद थीं। विद्रोही के लिए ‘कविता खेती है। उनकी कविता ही उनका ‘बेटा-बेटी’ है। उनके लिए कविता ‘बाप का सूद है, मां की रोटी है।’ उनके लिए कविता इंसाफ, मानवता, बराबरी का हथियार है। उन्हें अपनी कविता के ‘कर्ता’ होने का भरोसा है जहां वे कहते हैं, ‘मैं कवि हूं, कर्ता हूं… मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ/औरतों की अदालत में तलब करूंगा/और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूंगा। मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा/जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं/मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा/जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी।’ विद्रोही के भीतर का कवि यह पहचान गया था कि प्रकृति और मनुष्य के बीच तालमेल बनाने में क्रूर व्यवस्थाएं ही बाधा हैं और वह इन व्यवस्थाओं के प्रति क्रोध से भर गया था। वे चाहते थे कि वे ‘साइमन न्याय के कटघरे में खड़े हों’ तो ‘प्रकृति और मनुष्य गवाही दें।’ वे ‘मोहनजोदड़ो के तालाब की आख़िरी सीढ़ी’ पर खड़े होकर बोलते हैं जहां ‘एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है और तालाब में इंसानों की हड्डियां बिखरी पड़ी हैं।’
समकालीन कविताओं में भी गरीबी, भूखमारी, उपभोगगतावाद जैसी समस्याओं से घिरे हुए आम आदमी को मूल मान कर रचना की गई है और आज भी की जा रही है। समकालीन सभी कवियों ने “संस्कृति”, “स्वतंत्रता”, “संसद”, “आस्था”, “शांति”, “भाषा”, “कानून”. “जनतंत्र”, “त्याग”, “मनुष्यता”, “झंडा” आदि शब्दों की अर्थवत्ता खो जाने का और इनकी अर्थ विकृति का भंडाफोड़ किया है। “हर ईमान का एक चोर दरवाजा है” और आदमी जीवन के इस नरक में सड़ने को विवश कर दिया गया है। समकालीन सृजन की उपलब्धियों में रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, धूमिल-मलयज, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर, कुँवर नारायण, गिरिजाकुमार माथुर, विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, लक्ष्मीकान्त वर्मा – नाम कहाँ तक लें-इन सभी के काव्य सृजन को लिया जा सकता है। यह सृजन अपने समय-समाज का सच्चा साक्ष्य है। रघुवीर सहाय, धूमिल और केदारनाथ सिंह का नया काव्य-मुहावरा पुरानी लीकों से हटकर है। इन सभी का सृजन हिन्दी कविता की एक उपलब्धि है। परम्परागत संस्कारों पर प्रहार करते हुए अकवितावादियों ने भी खुलापन अपनाया। राजकमल चौधरी, सौमित्र मोहन, जगदीश चतुर्वेदी का काव्य न तो पूरी तरह पश्चिम के गिंसवर्ग, नार्मल मेलर आदि बागी लेखकों की नकल है न हमारी वास्तविकता से पलायन। हाँ, इनके संघर्ष का तरीका अलग है। नववामपंथी-जनवादी रचनाकारों की सब कविताएँ “कोरी फार्मूला” नहीं है उनमें समय के घावों का दर्द सच्चा है। हिंदी कविता में आम आदमी की चेतना तब तक ज़िंदा रहेगी जब तक समकालीन कवी रघुवीर सहाय की तरह अपनी कविताओं में इनको इच्छित स्थान देते रहेंगे।
“बच्चा गोद में लिए
चलती बस में
चढ़ती स्त्री और मुझमें कुछ दूर तक घिसटता जाता हुआ।”
सम्प्रति : कार्यकारी अधिकारी लोकसभा सचिवालय नई दिल्ली
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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