अनुराधा बक्शी “अनु”
दुर्ग, (छत्तीसगढ़)
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“मैंने घोसले तोड़ दिए हैं अपनी मन्नत के। तुम्हें जाते देख रोई है आत्मा बहुत। आंखों में दर्द की रेखाएं वक्त बेवक्त उभर आती हैं, लालिमा के साथ। दर्द की ये इंतेहा ही मेरे प्यार की इम्तिहा है। हम तुम पर इस तरह फना हुए जैसे तुम हवा में धुलकर सांसों में समा गए जाते हो। ये हमारी बातें हैं। ये हमारा प्रेम है। मैं घंटों अपने आप में तुमसे बातें करती हूं। तुमको सोचती हूं। तुमको जीती हूं। ये सूनापन ये बेचैनी हर बार मुझे तुम्हारी ही तरफ मोड़ देती है। तुम मुझ में खत्म ही नहीं होते हो। सभी की नजरों से परे मैं एक दूसरे में खोए हम खिलखिलाते हैं, रोते हैं, एक दूसरे के साथ होते हैं”
आज फिर तेज़ बबंडर आया और अपने साथ सब कुछ उजाड़ कर मुझे दूर किसी बियावन में छोड़ गया। जहां दूर दूर तक मुझमें तुम्हारा इंतजार करती मैं और तुम मुझमें मुझसे अंजान मेरे अंतस की गहरी पहट में अपनी ही दुनिया में खोए बैठे हो। मैं हर रस्मो रिवाज से दूर, हर बंधन से मुक्त तुमसे इस तरह मिल रही थी जैसे कणों से रश्मिया, धूप से ऊष्मा और छांव से हवा। मैं रोज़ तुमसे इसी तरह मिला करती हूं। अक्सर मैं उस तरफ मुंह करके खड़ी हो जाती हूं जिधर से तुम गुजरे थे। गुजरता हर शख्स तुम्हारी तरह नहीं दिखता पर उस पल मेरी आंखों के सामने तुम्हें साकार कर देता है और मेरा रिक्त मन तुम्हारी यादों से भर जाता है। तुम जब जब भी मुझसे मिलोगे मुझे यही इंतजार करते पाओगे। पल के कई छोटे-छोटे छणों में इसी तरह मैं रोज तुमसे मिला करती हूं। ये बवंडर तुम्हारी यादों के थमते नहीं। मैं अकेली नहीं हूं तुम्हारी यादों का जखीरा मेरे साथ चल रहा होता है जो मेरे होने का एहसास दिलाता है। एक आवरण बिछा होता है मेरे आस-पास तुम्हारा। मेरे अंतर की गहरी पहट में अंकुर तुम्हारा बट वृक्ष बन गया है। अब मैं तुम मय हो गई हूं। आत्माओं का ऐसा मिलन अब्र में छिपे पानी सा है जो हर पल में ढलकर तेरा होने को तैयार रहता है। यू मैं खुद को लिख रही हूं या तुम्हें जी रही हूं। मैं तुममें खो गई हूं तुम्हारी हो गई हूं। हां मैंने तुमसे होकर खुदको पा लिया है। वृक्ष से लहराकर गिरते सूखे पत्तों की बारिश, नव पल्लिकाओं का सृजन, ये मकरंद, ये बौराई अंबिया, ये भौरें कितनी सहजता से मुझे तुमने भर रहे है। पतझड़ में बसंती सा होता मेरा व्यक्तित्व, गर्मी में ओश सा ढलता मेरा मन। प्रकृति की इस अनोखी रचना मैं खुद लिख रही हूं। जिस तरह पानी की बूंद मिट्टी में और नदी समंदर में समाहित होने को बेताब उसी तरह में हर मुश्किल में मुस्कुराती हुई तुम में समाहित होने बेताब। उस तेज आंधी के साथ मैं भी गुम हो गई हूं। मैं रश्मियों संग तुम पर छिटक कर तुममें शामिल हो गई हूं। तुम्हें देखे बगैर तुम्हें निहारते रहना, तुममें गुम हो जाना, तुम्हारे रंग में रंग जाना कितना कयामत है। हां है कोई जगह जहां जमी नहीं बस्ती है बेहिसाब बातें जहां सबसे छुपकर मिलते हैं हम। जहां हमारा बेरोकटोक आना जाना हुआ करता है। जहां रूहें अपना आशियां बनाया करती हैं। जहां मैं ख़त्म हो जाती हूं और लिख देती हूं इस ब्रह्मांड पर अपना वजूद कभी न खत्म होने को। कणों में शामिल हो हम मिल जाते हैं।
परिचय :- अनुराधा बक्शी “अनु”
निवासी : दुर्ग, छत्तीसगढ़
सम्प्रति : अभिभाषक
घोषणा पत्र : मैं यह शपथ लेकर कहती हूं कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है।
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