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सोच हमारी संस्कृति पर भारी

विष्णु दत्त भट्ट
नई दिल्ली

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हमारा देश बहुत कमाल का देश है। हमारी एक ख़ासियत है कि जो कुछ स्वदेशी है हमने उससे हमेशा नफरत की है और जो कुछ विदेशी है उसे बेइन्तहां प्यार करते हैं। हमें तो बेहूदगी और बेशर्मी भी प्यारी है, बस शर्त यह है कि वे विदेशी हों। अपने देश की तो सादगी भी वाहियात लगती है। हमारे यहाँ महान ऋषि-मुनि हुए, हमें वे फूटी आँख नहीं सुहाते, हम उनसे नफ़रत करते हैं। नैतिकता, भाईचारा, अपनापन, बड़ों का आदर, नारियों का सम्मान ये सारी सीख हमारे पूर्वजों की देन है। लेकिन हम इन सारी अच्छाइयों को दकियानूसी समझकर नफ़रत करते हैं और पूरा ध्यान रखते हैं कि कहीं हमारे बच्चे ये बहियात बातें सीख न जाएँ? हम कितनी उच्चकोटि की निम्न मानसिकता से ग्रस्त हैं कि ‘लिव इन रिलेशन’ और ‘समलैंगिकता’ जैसी वाहियात विचारधारा को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए आंदोलन करते हैं।
संस्कृत और हिंदी भाषा हमारे देश की ही नहीं दुनिया की प्राचीनतम भाषाएँ हैं। हम इन पर गर्व करने की बजाय नफ़रत करते हैं और पूरी कोशिश करते हैं कि हमारे बच्चे अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन भाषाएँ सीख जाएँ लेकिन संस्कृत और हिंदी से दूर ही रहें तो अच्छा।
उच्चशिक्षा प्राप्त बच्चे जब अपने माता-पिता को यार पापा, मॉम यार कहकर संबोधित करते हैं तो उस समय ऐसा लगता है कि हम सभ्यता के उस शिखर पर पहुँच गए जहाँ डूब मरने के अलावा कुछ बाकी नहीं रह जाता? लेकिन हम खुश होते हैं। आयातित बेहयायी हमारे लिए गर्व की वस्तु है और अपने संस्कार, शिष्टाचार शर्म और नफ़रत की वस्तु है।
हमारे देश का आधुनिक बच्चा, जो अंग्रेज़ी बोलना सीख जाता है उसे हिंदी बोलने वाले अपने बाप को बाप कहने में शर्म आती है और वह उनसे नफ़रत करने लगता है। अभिजात वर्ग (एलीट क्लास) का बच्चा पत्नी के मिलते ही अपने इकलौते माँ-बाप से नफ़रत करता है और उन्हें बुढापे में वृद्धाश्रम भिजवा देता है। विदेशी जो वर्ण भेद के कारण हमसे नफरत करते हैं हमें उनसे बेइन्तहाँ मोहब्बत करते हैं। मतलब यह हुआ कि जो हमें दुत्कारे वह प्यारा है और जो दुलारे वह नफ़रत के लायक है। यह हमारी सोच संस्कृति पर भारी पड़ रही है। पश्चिम का अंधानुकरण संस्कृति के लिए घातक है।
इतना ही नहीं देखिए जब से चाइनीज़ सामान आने लगा है तब से हमें अपने सामान की इज़्ज़त नहीं करते ? जब से अंग्रेज़ी आई हिंदी का आदर नहीं करते? जब से अंकल-आंटी आए तब से चाचा-चाची, मामा-मामी, ताऊ-ताई, देवर-देवरानी आदि देशी रिश्तों की इज़्ज़त ही कहाँ रह गई। जब से वन, टू, थ्री…… अँग्रेज़ी की गिनती आई है तब से हिंदी की गिनती पूछो तो बच्चे सोचते हैं कि माँ-बाप मज़ाक़ कर रहे हैं। अंग्रेज़ी की वर्णमाला पूछो तो शान से ए से झेड तक फ़र्राटे से सुनाते हैं और हिंदी की वर्णमाला पूछते ही बगलें झाँकने लगते हैं। अंग्रेज़ी वर्णमाला और अंग्रेज़ी गिनती के सामने अपने देश की गिनती और वर्णमाला की इज़्ज़त दो कौड़ी की भी नहीं रह गई। पश्चिमी परिधान के सामने अपने पहनावे से हम चिढ़ते हैं। सड़कों पर ज़िस्म की नुमाइश सभ्यता और गर्व की बात है और सलीके से बदन ढकना असभ्यता और गँवारपन है।
और क्या लिखूँ ज़नाब, जब से चाइनीज़ बीमारी कोरोना आई हमारी पुश्तैनी बीमारियों को अपनी औक़ात का पता चल गया। एक दिन दिल ने ब्लड प्रेशर से कहा, “ये जो बार-बार ‘हाई’ और ‘लो’ हो जाता है न, ये नखरे छोड़ दे, कोरोना आया हुआ है। विदेशी बीमारी है, उसके सामने तुझे कोई घास डालने वाला नहीं है ?” उसी दिन से ब्लड प्रेशर नार्मल हो गया। कोरोना के आने से पहले हर दूसरा बच्चा बिना सर्ज़री के दुनिया में कदम नहीं रखना चाहता था और कोरोना के आने के बाद बच्चों का एटीट्यूट भी गायब हो गया। अब सारे बच्चे बिना सर्ज़री के चुपचाप पैदा हो रहे हैं।
विदेशी बीमारी के सामने देशी बीमारियों को कोई पूछने वाला नहीं है।आजकल देश के अस्पतालों में केवल कोरोना है। बाकी बीमारियाँ शर्म के मारे उधर जा ही नहीं रही हैं। कोरोना (विदेशी बीमारी) के सामने कौन अपनी बेइज़्ज़ती कराए?

परिचय :- विष्णु दत्त भट्ट
निवासी : नई दिल्ली
शिक्षा : एम.ए है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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