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पुरानी यादे

संजय जैन
मुंबई (महाराष्ट्र)
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कैसे भूलूँ में बचपन अपना।
दिल दरिया और समुंदर जैसा।
याद जब भी आये वो पुरानी।
दिल खिल जाता है बस मेरा।
और अतीत में खो जाता हूँ।
कैसे भूलूँ में बचपन अपना।।

क्या कहूं उस, स्वर्ण काल को।
जहां सब अपने, बनकर रहते थे।
दुख मुझे हो तो, रोते वो सब थे।
मेरी पीड़ा को, वो समझते थे।
इसको ही स्वर्णयुग कह सकते ।।

मेरा रहना खाना और पीना।
माँ बाप को, कुछ था न पता।
ये सब तो, पड़ोसी कर देते थे।
इतनी आत्मीयता, उनमें होती थी।।

अब जवानी का, दौर कुछ अलग है ।
शहरों में कहां, आत्मीयता होती हैं।
सारे के सारे, लोग स्वार्थी है यहाँ के।
सिर्फ मतलब के, लिए ही मिलते है।।

पत्थरो के शहर, में रहते रहते ।
खुद पत्थर दिल, हम हो गए है।
किस किस को दे, दोष हम इसका।
एक ही जैसे सारे, हो गए है।।

अन्तर है गांव और शहर में।
अपने और पराए में ।
वहां सब अपने होते थे।
यहां कोई किसी का नहीं।।

यहां के सारे रिश्ते झूठे है।
अपना बनकर अपनों को ठगते है।
और इंसानियत को ताक पर रखते है।
और फिर भी अपनापन दिखाते है।।

परिचय :- बीना (मध्यप्रदेश) के निवासी संजय जैन वर्तमान में मुम्बई में कार्यरत हैं। करीब २५ वर्ष से बम्बई में पब्लिक लिमिटेड कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत श्री जैन शौक से लेखन में सक्रिय हैं और इनकी रचनाएं राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच (hindirakshak.com) सहित बहुत सारे अखबारों-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहती हैं। ये अपनी लेखनी का जौहर कई मंचों पर भी दिखा चुके हैं। इसी के चलते कई सामाजिक संस्थाओं द्वारा इन्हें सम्मानित किया जा चुका है। आप मुम्बई के नवभारत टाईम्स में ब्लॉग भी लिखने के साथ-साथ मास्टर ऑफ़ कॉमर्स की शैक्षणिक योग्यता रखने वाले संजय जैन कॊ लेख,कविताएं और गीत आदि लिखने का बहुत शौक है, आप लिखने-पढ़ने के ज़रिए सामाजिक गतिविधियों में भी हमेशा सक्रिय रहते हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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