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दो वक़्त की रोटी

विशाल कुमार महतो
राजापुर (गोपालगंज)
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किसानों की मेहनत भी क्या खूब रंग बिखेरती है,
लहू पसीना बनकर उनके रगों से जब निकलती हैं,,
किसानों की मेहनत भी क्या खूब रंग बिखेरती है,
लहू पसीना बनकर उनके रगों से जब निकलती हैं,,
जब नंगे बदन किसानों की उस कड़ी धूप में तपती है,
तब जाकर इन महलों में दो वक्त की रोटी बनती है ।।
दो वक्त की रोटी बनती हैं ।।

करके मेहनत खेतों में, वो फसलें भी खूब उगाते है,
बंजर भूमि जो सोया है, उसको उपजाऊ बनाते हैं।
खेतों से अन्न ले जाकर, हर शहर मे वो पहुँचाते है,
इसीलिए इस जग में वो एक अन्न दाता कहलाते है।
उनकी ही तो श्रेय से हर घर दीप-दीवाली मनती है
तब जाकर इन महलों में दो वक्त की रोटी बनती है ।।
दो वक्त की रोटी बनती हैं ।।

खेतों में जब जब फसलें उपजाऊ हो जाती है,
अन्नदाता के मन मे खूब खुशियां लहलहाती है ।
हुवे भोर तो खेतों में कोयल भी कूक सुनाती है,
और खेतों की फसलें भी मन ही मन मुस्काती है।
इनकी मेहनत खुद भूखे रहकर दुसरो का पेट भरती है ।
तब जाकर इन महलों में दो वक्त की रोटी बनती है ।।
दो वक्त की रोटी बनती हैं ।।

जब नंगे बदन किसानों की उस कड़ी धूप में तपती है,
तब जाकर इन महलों में दो वक्त की रोटी बनती है ।।
दो वक्त की रोटी बनती हैं ।।

परिचय :- विशाल कुमार महतो
निवासी : राजापुर (गोपालगंज)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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