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इजा (मातृ) शतकम्

सुरेश चन्द्र जोशी
विनोद नगर दिल्ली
********************

उत्तराखंड राज्य में,
पिथौरागढ़ नामका जनपद था।
वहाँ पुल्लाके समीप मेंं,
गजना नामक गाँव था ।।१।।

ऋषिभरद्वाज के वंशज,
जोशी कुल में उत्पन्न हैं।
महाविप्र इन्द्रदेव जी,
बृद्धप्रमातामह भूषण हैं ।।२।।

लालमणी प्रमातामह तो,
मातामह ईश्वरीदत्त हैं।
मातामह पत्नी मातामही,
विख्यात भवानी देवी हैं।।३।।

लालमणी भवानी के घर में,
सुकर्मफलों से कन्या हुई।
वह कन्या इसलोक मेंं,
पार्वती नाम से ख्यात हुई ।।४।।

होकर स्वकुलभूषण भी,
माता पिता से हेय हुई ।
ब्रणकष्ट अति सहकर भी,
दक्षिणहस्त से पीडित हुई ।।५।।

मातापिता का दुर्भाग्य था उनको,
न सुता महत्व का भान हुआ।
उनके अकरणीय कर्म से,
निष्क्रिय दाहिना हाथ हुआ ।।६।।

मौनसगोत्र शिरोमणि,
दुन्याँ गाँव में निवासी हुए।
बलभद्र जोशी नाम से,
प्रसिद्ध प्रपितामह हमारे हुए।।७।।

बलभद्र कृतपुण्य कर्मों से,
उनके एक सुपुत्र हुए।
पितामह हमारे ज्योतिर्विद,
प्रेमबल्लभ जी उत्पन्न हुए।।८।।

तपपुण्य प्रभाव पितामह का,
पुत्र दुर्लभ अति-मूर्धन्य हुआ।
भवानी महामति दादी के गर्भ से,
पिताश्री जीवानंद का जन्म हुआ।।९।।

अतिदुर्भाग्य कारण से भवानी,
प्रस्थान बैकुण्ठ कर गई थी।
मातुहीन श्री जीवानन्द हुए
अल्पायु मात्र तब बारह वर्ष थी।।१०।।

होता गृह शून्य गृहिणी बिना,
ऐसा विचार तब शीघ्र किया।
मातामह ईश्वरीदत्त के सम्मुख को,
पितामह ने गजना प्रस्थान किया।।११।

चित्त हर्षित पितामह का जब,
किया अवलोकित देवीपार्वती को।
याचना की तब सविनय पितामह ने,
हेतु स्वकुलोद्धारण को ।।१२।।

इस भाँति जन्मसे जीवन के,
बारह वर्षों ने प्रस्थान किया।
वर्षतेरहवें में विधि-विधान से,
मातामह ने कन्यादान किया।।१३।।

माता-पिता के परिणय से,
गृह-शून्यता पूर्ण की माता ने।
मुदित-हृदय से माता को,”
“चडी’नाम दिया पितामह ने ।।१४।।

एक देवर, ससुर, और-
दो, ननदेंं थी।
ननद मंतीदेवी एक,
मातृवत्सला देवी थी ।।१५।।

ननद दुर्मना, दुर्विचार-युक्ता,
दूसरी खीमादेवी थी।
धृष्ट-देवर के कुवाक्यों को ,
माँ ही सदा सुनती थी ।।१६।।

देवर कृष्णानंद को सदा,
पुत्रवत ही माँ पाली थी।
कभी अकृत्य आचरण से,
नहींं माँ विचलित होती थी।।१७।।

संघर्ष भरी गृहस्थी मेंं माता ने,
जब छः वर्षों को व्यतीत किया।
आरंभ सातवें वर्ष में तब,
श्री फुटलिंगदेव ने आशीष दिया।।१८।।

श्रावणमास कृष्णपक्ष में,
तिथि-अमावस्या मघा-नक्षत्र था।
बज्र-योग करण-नाग में,
ऋषिभार्गव का शुक्रवार था।।१९।।

रात्रि नौपचास की वेला में,
उदय हुआ मेष-लग्न था।
कर्क राशि में भाष्कर भगवान,
सिंह में चन्द्रमा आगत था।।२०।।

मेष राशि में मंगल शोभित,
बुध सिंह में समाया है।
कर्कराशि मेंं शुक्र विराजत,
बृहस्पति तुला मेंं आया है।।२१।।

मेष तुला मेंं राहु और केतु ,
और तुला ही शनि की स्थिति हुई।
इसतरह धरणीके ग्रहयोगों में,
प्रथम पुत्रवती माँ पार्वती हुई ।।२२।।

आंग्ल-अगस्त माह में,
पंचदशवीं तिथि जब आई।
शंकर कृपा से पृथ्वी में,
माताश्री जननी कहलाई ।२३।।

ग्यारहवां स्वातंत्रोत्सव आयोजित,
संपूर्ण भारत में जब हुआ था।
अग्रज-मेरे श्री मथुरादत्त का,
तब उसी दिन”दुन्याँ”जन्म हुआ था ।२४।।

देख सुस्वस्थ बालक को,
हृदय हर्षित माता-पिता का हुआ।
समारोह भी सुत-जन्म का तब,
.एक बृहद् आयोजित हुआ ।।२५।।

सुत-त्रय इसके बाद गये फिर,
सुतेक की माँ जननी हुई।
करके उस सुत का नामकरण,
प्रसन्न अत्यंत जननी हुई।।२६।।

पुत्र द्वितीय त्रिलोचन नाम का,
हृष्ट पुष्ट बलवान हुआ।
माताका वह पुत्र अल्पायुज हो,
छठेही वर्ष दिवंगत हुआ।।२७।।

एवं संघर्षरता जननी ने वर्ष,
अट्ठाइस का जीवन पूर्ण किया।
उन्तीसवें वर्ष के आरंभ में,
माता ने पुनश्च गर्भधारण किया।।२८।।

कृपा से बैद्यनाथ लधून की,
फुटलिंगदेव के पास हैं।
आयुर्वेद विशारद वैद्य
श्री जीवानन्द जी विद्वान हैं ।।२९।।

गर्भमें श्रीमती पार्वती के मैं,
पुत्र-तृतीय रुप में आया था।
शुक्ल-पक्ष की तिथि-चतुर्दशी,
मासोत्तम आश्विन आया था ।।३०।

शुक्ल पक्ष रविवार में,
नक्षत्र शतभिषा आया था।
रात्रि सवा नौ की बेला में,
वृष-लग्नोदय आया था।।३१।।

कन्या-राशि में सूर्य था,
चन्द्रमा कुंभ-राशि में आया था।
बृश्चिक राशि में भूमिसुत-मंगल,
और कन्या में बुधग्रह आया था ।।३२।।

गुरु शुक्र शुभ सिंह मेंं तो,
सौरि मीनयुत हो आया था।
मेष और तुला में राहु-केतु भ ,
ग्रहयोग ऐसा जब धरणीपर आया था।।३३।।

सितंबर आंग्लमाँस में,
सप्तदश दिनांक जब आया था।
श्री लधूनमहादेव की अनुकंपा से,
धरती पर मैने जन्म लिया था ।।३४।।

यों पाप-राहु की गर्भ दशा में,
मेरा जन्म हुआ था।
अंतिमपद की साढेसाती में,
जननी से मेरा लालन हुआ।।३५।।

एक वर्ष दशमास दिन उन्नीस,
महादशा राहु की भोग्य थी।
काल ये अत्यंत कष्टकारक,
घडी मार्कत्व के योग्य थी ।।३६।।

दुःखिता माता शिशु कष्ट से,
विचलित कभी भी नहीं हुई।
प्रभाव से निज-पुण्य कर्मों के,
सुत-मार्कत्व खंडन में सफल हुई ।।३७।।

जननी के तप-प्रभाव से,
मेरा तो जीवन सँभल गया।
दैवगति के दुष्प्रभाव से,
सुत त्रिलोचन चला गया ।।३८।।

पीडिता थी पुत्र वियोग से,
तथापि धैर्यधारिता हो गई ।
करती हुई पुत्र-द्वयों का पालन,
माँ धर्म-परायणा हो गई ।।३९।।

कुक्षि शोक-संतप्ता और,
साश्रुनयना वह हो गई।
ग्रसित गृहस्थ चिंता से,
निजकर्म-निरत-रत हो गई ।।४०।।

कुटुंब धर्मरता सदा माता,
ग्रामीणों का स्नेह पाती थी।
करती थी वह सबका उपकार,
हृदय किसीका भी नहीं दुःखाती थी ।।४१।।

आरंभ चौतीसवें वर्ष में,
देव और पितरों की कृपा हुई।
जन्म प्रदायिनी जननी हमारी,
पुनश्च वह गर्भिणी हुई ।।४२।।

वैशाख मास शुक्ल पक्ष में,
तिथि चतुर्थी बुधवार था।
तद्दिन अनुराधा नक्षत्र और,
व्यतीपात नामक योग था ।।४३।।

बव नामक करण और प्रातः,
सवाआठ बजे का समय था।
जन्म लिया अनुज नवीन ने,
लग्नोदय तब वृष ही था ।।४४।।

सुत चतुर्थ को जन्म दिया माता ने,
पूर्ति द्वितीय की हो गई।
जननी अब इष्ट प्रसाद से,
त्रिपुत्र-युक्ता हो गई ।।४५।।

सुत-त्रय उसके बाद भी,
जननी पुनः जन्मे थे।
प्रारलब्ध के परम-दुर्भाग्य से,
हुए दिवंगत तीनों थे।।४६।।

सुतास्वरुपा तीनों सुत हैं माँ,
ऐसे संस्कारों से पाली थी।
पढाया और संस्कारी बनाया माँ ने,
माँ हमारी सुतप वाली थी ।।४७।।

ज्येष्ठ सुत माता का चौबीस वर्ष में,
प्रशिक्षित स्नातक हो गया था।
कुलवधू की इच्छा से माँ ने तब,
पाणिग्रहण संस्कार सुत का किया था।।४८।।

हेमा मध्यसुता उस परिवार से,
मथुरादत्त स्वज्येष्ठ पुत्र था।
उत्तम संस्कार दोनों का विधि से,
सम्पन्न विवाह करवाया था ।।४९।।

कुलवधू के घर में आने से,
माता प्रसन्न अत्यंत थी।
छः दिनों के बाद ही परिवार में,
गिरी घोर आपत्ति अत्यंत थी ।।५०।।

कृष्ण पक्ष अष्टमी आषाढ़ मेंं ये दिन,
कैसा रविवार आ गया।
सौभाग्य खण्डित कर जननी का,
पति प्राणों को यम हर ले गया ।।५१।।

वर्ष छियालीस में आती थी माँ,
वर्ष पिता का बावनवाँ था।
अकस्मात पिता के निधन से ही,
वियोग हुआ दोनों का था ।।५२।।

ऐसी घोर बिपत्ति काल में,
स्व-बांधवों ने माँ को त्याग दिया।
माँ के ही अनुज त्रयों ने तब पालन,
भ्रातृ-धर्म का नहीं किया ।।५३।।

ननद पुत्र भानिज गौरीदत्त और,
देवर रमेशचन्द्र का साथ था।
आश्रय अविस्मरणीय सदा दिया,
सहयोग भानिज देवर का था ।।५४।।

संघर्ष जीवन यापिनी माता को,
आशीष लधूनदेव का प्राप्त हुआ।
पश्चात संघर्ष ढाई वर्ष के,
शिक्षकपद ज्येष्ठ पुत्र को प्राप्त हुआ ।।५५।।

अब सारे मित्रगण बंधु-बांधव,
और माता के भाई।
माँ के गुणगान पुत्रों को देखकर,
पूछने लगे सब भाई ।।५६।।

डेढ़ वर्ष के भीतर ही गाँव से,
शीघ्र अनुज,जननी लेकर।
मैं श्री अग्रजवर की इच्छा से,
आया था दिल्ली को लेकर ।।५७।।

तब एक वर्ष के अंदर ही,
परिवार में पदोन्नति हुई।
पुत्र हरीश का जन्म होने से,
माताश्री घर की दादी हुई ।।५८।।

दादी ने जब पौत्र को प्यार देकर,
चार वर्षों को बिता लिया।
इष्ट कृपा से फिर परिवार में,
पुत्री नीलम ने जन्म लिया ।।५९।।

पश्चात तीन वर्ष के माता ने,
कार्य फुटलिंगेश्वर के पास किये।
निर्माण धर्मशाला शिवालय और,
जलाशय के पूर्ण किये ।।६०।।

इनकी प्रतिष्ठा करने के लिए,
नौ वर्ष पश्चात गाँव गमन हुआ।
दो पुत्रों के साथ गाँव जाकर,
माँँ का देवानुष्ठान सम्पन्न हुआ ।।६१।।

दो वर्ष पश्चात जननी ने मुझ,
मध्यसुत के लिए चिन्तन किया।
मुझे गृहस्थाश्रम मेंं प्रवेश का,
माताश्री ने आदेश दिया ।।६२।।

विकृति अभिधान सम्वत्सर का,
वह दो हजार चवन में था।
वैशाख मास शुक्ल पक्ष में,
तिथि द्वितीया गुरुवार था ।।६३।।

रोहिणी नक्षत्र तत्काल था,
चन्द्रोच्चराशि समागत था।
योग-अतिगंड करण-तैतिल,
सूर्योच्च राशि में स्थित था ।।६४।।

मध्यसुत सुरेश चन्द्र इधर से,
मध्यसुता शिवोपासिका माया उधर थी।
पाणिग्रहण संपन्न करवाई माता,
श्री लधूनेष्ट की अनुकम्पा थी ।।६५।।

वर्ष एक के अंदर ही,
अनुकंपा महादेव की हुई।
हुआ जन्म मेरी पुत्री शिवानी का,
दादी अत्यंत हर्षिता हुई।।६६।।

अनंतर दसमास के,
पौत्रेक का भी जन्म हुआ।
पुत्र द्वितीय अग्रज के घर में,
सचिन उसका नाम हुआ।।६७।।

चार पौत्र-पौत्री युक्ता माता,
अति हर्ष को प्राप्त हुई।
और बधू स्वकनिषठसुतार्थ,
बिचारवान जननी हुई।।६८।।

विवाह नवीन चन्द्र का,
युवती धना से हुआ।
देवपितरों की कृपा विधि से,
जननी का ये कर्म संपन्न हुआ ।।६९।।

द्वितीयाश्विन शुक्लपक्ष में,
ब्रह्ममुहूर्त चन्द्रवार था।
शिवलधून की अनुकंपा से,
अभिषेक तब जन्म हुआ था।।७०।।

आंग्लमाँस अक्टूबर में तिथि,
उन्तीसवीं जब आई धरा में।
दोहजार एक ईस्वी सन् में,
पुत्र अभिषेक आया धरा में ।।७१।।

सातमास के भीतर ही एक,
अन्य भी पौत्री हुई।
बिन्नी उसका नाम हुआ,
अब माता युक्ता त्रिपौत्री हुई ।।७२।।

पौत्र चतुर्थ रुप में,
गौरव की उत्पत्ति हुई।
सात पौत्र-पौत्रियों की इस तरह,
माताश्री दादी हुई ।।७३।।

सदैव स्वकर्मरता माँ निष्पापा,
सरल मन वाली थी।
निजपुत्रों को तपबल से,
वह विजयी सदा बनाती थी।।७४।।

ज्येष्ठ पुत्र मथुरादत्त विख्यात,
महाप्रज्ञ अध्यापक बने।
सम्मानित सम्मानों से होकर,
राष्ट्रपति शोभित सम्मान बने ।।७५।।

अर्जित अपार संपत्ति और,
बहु धन-धान्य से युक्त हुए।
लोकाचरण हो या बाह्य ब्यवहार,
बडी विशेषता से युक्त हुए।।७६।।

पुत्र कनिष्ठ अधिवक्ता बनकर,
मामाओं का तो स्नेही बना।
धन-लक्ष्मी से सुयुक्त होकर,
सदा पर्याय स्वयंमानी का बना ।।७७।।

जिस तरह निकटी लोगही गाँव में,
शत्रता बडी निभाने में सफल हुए।
दिल्ली में भी कुछ वैसे परिवार,
हमारे परिवार खण्डन मेंं सफल हुए।।७८।।

बहन होकर एक चंचला ने मिल,
पुत्र-पति से आघात था किया।
क्रूर-तांत्रिक क्रिया से उसने,
सिन्दूर मातु सीस का हरण किया।।७९।।

दूसरी तो चंचला (कलावती) दिल्ली में,
पुत्री न होकर भी पुत्री बनी।
मध्य कोख पर किया प्रहार उसने,
जननी के आँसुओं की वह मूल बनी।।८०।।

तर्क कुतर्क तो जानती माता,
कभी न बोली बाचाल-वाणी को।
दुःखिता हमेशा मध्यसुत की रक्षा मेंं,
त्यागा माता ने इस निकृष्ट समाज को।।८१।।

ज्येष्ठ-कनिष्ठ दोनों पुत्रों ने,
मेरे मध्य-पुत्र को त्यागा क्यों?
अस्थिरता पद और धन की देखकर,
रक्तधर्म को भूल गए हैं क्यों? ।।८२।।

वक्षस्थल पर ले मानापमान का भार वह,
निकृष्टों को कुछ ना कहती थी माँ।
ईश्वर हैं सदा तेरे साथ कहा माँ ने,
धर्मयुद्ध जीतेगा तू मेरा आशीष है कहतीथी माँ।।८३।।

जिस त़ंत्रक्रिया से पति के प्राण गए,
आवृत्ति उसी क्रिया की पौत्र सचिन पर हुई।
किया कलावती के भाइयों ने कुकर्म तो,
फिर भी कलावती अधर्म-पुत्री कैसे हुई ।।८४।।

प्रथम पौत्र के विवाह काल में,
द्वितीय पौत्र को स्मृति-विहीन देखा माँ ने।
येन केन प्रकार से माता ने
संपादन पाणिग्रहण पौत्र का किया माँ ने।।८५।।

पुत्र पौत्रों के कारण, जो माता सदा विचलिता,
ओ कैसे पौत्र रोगों को देख सकती थी।
जानकर पुत्र के गृह-बिक्रय निर्णय को,
मनसे से अत्यंत खिन्न माँ दुःखिता हुई थी।।८६।।

श्रावण मास कृष्ण पक्ष चतुर्थी रविवार को,
आगमन मेरे घर में परमसौख्य प्रदायिनी माँ का हुआ।
सुखसे बारह दिन बिताये माँ ने,
फिर ज्येष्ठ पुत्र घर माता का प्रस्थान हुआ ।।८७।।

वार्ता कर कनिष्ठ सुत से माता ने,
हृदयाकर्षित कनिष्ठ पौत्र-पौत्री पर किया।
पुनः कनिष्ठ-सुत-घर जाने की इच्छा से,
पुत्रप्रेम मेंं स्वच्छंद सुखों का त्याग किया ।।८८।।

सिंहस्थित दिनकर और चन्द्र कर्क मेंं,
नक्षत्र पुष्प सहित योग ब्यतीपात था।
गर-करण बुधवार मेंं,
तिथि-त्रयोदशी और कृष्ण पक्ष था ।।८९।।

बत्तीस वर्ष पूर्व जहाँ पर आई थी माँ,
किये वहाँ पर सारे सुमंगल माँ।
इच्छा न जाने की फिर भी जाने को तैयार माँ,
कनिष्ठ पुत्रसे थी भाव-बिह्वला माँ ।।९०।।

चली विनोदनगर से सदा के लिए माँ,
वानप्रस्थायु पूरी बिताई जहाँ माँ।
लौटकर बादमें कभी पुनः न आई माँ,
क्या कारण?ओ ईश्वर ही जाने माँ ।।९१।।

आपके चरण कमलों की सेवा का माँ,
पच्चीस दिनोंका अंंतिम सुअवसर मिला माँ।
जो आपको विनोदनगर मेंं लाया था माँ,
घरसे उसीके आपने विनोदनगर त्यागा माँ ।।९२।।

प्रथम दिवस पुत्र-जन्मदिन,
दूसरे दिन थी पति जयन्ती माँ।
खाई थी खीर सुमनसे से तूने,
पुत्रागमन दिवस पर खुश थी माँ।।९३।।

दूसरे ही दिन क्यों उद्विग्न मेरी माँ,
प्रस्थान किया पितृधाम को माँ।
दिया न आदेश कुछ ज्येष्ठ पुत्र को,
ना दिया कुछ मुझे, मध्य सुत को माँ।।९४।।

पिता आगमन दिवस में गमन माता का?
रचा विधि-विधान कैसा मेरी माँ ?
शुभ दिवस ये कैसे हुआ प्रभु?
जनकागमन दिवस ही,जननी गमन माँ।९५।।

पुरुषोत्तम मास की प्रतिपदा तिथि,
शुक्रवार नक्षत्र हस्त, बज्रयोग हे मेरी माँ।
कौलव करण तत्काल पञ्चांग से,
रात्रि के बजे साढेग्यारह हे माँ ।।९६।।
लग्नमिथुन में राहु समाहित,
शनि अष्टसहित मारक मेंं था केतू माँ।
लग्नेश ग्रसित हो पाप ग्रहों से,
दुष्ट मार्कत्व आया मेरी माँ ।।९७।।

आंग्लमाँस सितंबर सन् बीस,
तिथि अष्टादश भृगुवार।
शिवधाम को जननी चली,
दे मुक्ति शिव-परिवार ।।९८।।

सिर से हाथ गया जननी का,
दिलसे कैसे भुलाऊँ मैं ?
असमर्थ स्वयं को स्थिर करने मेंं,
कैसे मन स्थिर करुँ मेरी माँ।।९९।।

पुरुषोत्तम आश्विन मास मेंं शुक्ल पक्ष,
तिथि द्वितीया शनिवार मेंं हे माँ।
जननी समर्पिता अग्नि को,
मिली पञ्च तत्व मेंं हमारी माँ।।१००।।

आश्विन पुरुषोत्तम-मास शुक्ल पक्ष में,
तिथि पंचमी चन्द्रवार मेंं माँ।
जननी की अस्थियाँ विसर्जित हुई ,
गंङ्गाके ब्रह्मकुण्ड सरोवर में हे मेरी माँ।।१०१।।

परिचय :-सुरेश चन्द्र जोशी
शिक्षा : आचार्य, बीएड टीजीटी (संस्कृत) दिल्ली प्रशासन
निवासी : विनोद नगर दिल्ली)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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