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कोरोना काल की व्यथा

डॉ. राजीव पाण्डेय
गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)
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घिरी अमंगल घोर घटाएं।
अपना कहर रही बरपाएँ।

यही निवेदन प्रभुजी करता
जग पर कृपा रस बरसाएं।

सहमी सहमी गुलशन क्यारी
उसके गन्धित पुष्प बचाएं।

जहर घुला है प्राणवायु में,
सबसे पहले शुद्ध बनाएं।

घुसे गुफा में हम बैठे हैं
बाहर जाने के दिन आएं।

पंख हमारे सिकुड़ गए हैं,
नभ में कैसे भी फैलाएं।

क्रूर काल के वैश्विक पंजे,
काटे छाँटे चक्र चलाएं।

मुँह को बांधे क्या जीना है,
जीते हैं पहचान छिपाएं ।

घर घर के विस्तर हैं पीड़ित,
सोच रहे हैं कब मुस्काएं।

युवा दिलों की धड़कनसोचें
बैंड हमारे कब बज पाएं।

बस्ते लेकर बच्चे गुमसुम
कब से हम फिर शालाआएं।

पार्को में पसरे सन्नाटे,
भूले कैसे सैर कराएं।

मेहनतकश के बच्चे भूखे
खाली थाली रोज बजाएं।

सुबह साँझ में कैसा अंतर,
सन्नाटों को क्या समझाएं।

सुंदरतम कवितायें भी अब
ताली से वंचित रह जाएं।

गजरे वाले फूल आजकल
बे मन अर्थी रोज सजाएं।

खुशबू सूँघे हुआ जमाना,
बस चूल्हे काढ़ा पिलवायें।

कण्ठ गरारे झेल रहें हैं,
गया जमाना राग सुनाएं।

इत्रों की खुशबू है गायब,
रोज भाप में नाक घुसाएं।

आते नहीं मुसाफ़िर अब तो,
बेबस बस किसको पहुंचाएं।

खूँटी पर हैं व्याकुल घुँघरू
गोरी पग को स्पर्श कराएं।

दुखी रसोई के प्याले हैं।
किसको जाकर चाय पिलायें।

परिचय :- डॉ. राजीव पाण्डेय
निवासी : वेबसिट, गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)

घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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