राकेश कुमार तगाला
पानीपत (हरियाणा)
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नीना जी, आज आप बहुत उदास लग रही है। क्या कोई खास कारण है? आपका हँसता हुआ चेहरा, आज मुरझाया हुआ क्यों लग रहा है? मैंने आपको इससे पहले कभी इतना उदास नहीं देखा। क्या आप मुझें अपनी परेशानी बता सकती हैं? अरे, सुरेश जी आप तो यूँ ही इतने परेशान हो रहे हैं। मेरे चेहरे पर लंबे सफर की थकान है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। थोड़ा आराम कर लूँगी। फिर सब ठीक हो जाएगा। क्या हम शाम को मिल सकते हैं, सुरेश जी?
जी जरूर, आपकी हर फरमाइश सिर-आंखों पर। अच्छा मैं चलता हूँ, फिर मिलेंगे। वह सुरेश को जाते हुए देखती रही, जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गया। सुरेश वर्षों से मेरे साथ हैं। यह साथ करीब-करीब बीस साल पुराना है। जब हम कॉलेज में पढ़ते थे। सुरेश हमेशा से ही मस्ती में रहता हैं। उसे तो सिर्फ मजाक करने का बहाना चाहिए। मुझें नहीं लगता वह कभी गंभीर भी होता हैं। मैंने तो उसे हमेशा से ऐसा ही पाया हैं।
वह उठकर बेडरूम की तरफ चल पड़ी, उसे थोड़ी सी थकान महसूस हो रही थी। पर वह बिस्तर पर लेटना नहीं चाहती थी। सफर में, मिला एक सुंदर चेहरा उसे बार-बार अपनी तरफ खींच रहा था। क्या वह पहले कभी कहीं उससे मिली थी। अगर नहीं तो यह चेहरा उसे इतना जाना-पहचाना क्यों लग रहा था? उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। वह बिस्तर पर लेट गई। पर उसकी आंखें बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी। वह उस लड़की के बारे में जानना चाहती थी। काश मैं ट्रेन में ही उससे पूछ लेती कि क्या हम कभी मिले हैं? उसका सिर भारी होने लगा था।
आखिर उसने आंख बंद कर ली। धीरे-धीरे वह नींद की आगोश में पहुंच गई। पर दरवाजे पर हो रही आहट ने उसे बिस्तर छोड़ने को मजबूर कर दिया। वह उठना नहीं चाहती थी। पर दरवाजे पर हो रही खटखट ने उसे उठने को मजबूर कर दिया था। वह नंगे पांव ही दरवाजे की तरफ चल पड़ी। जैसे ही उसने दरवाजा खोला, सुरेश सामने खड़ा था। क्या बात दरवाजा खोलने में इतनी देर, किसकी यादों में खोई थी? बस भी करो सुरेश, तुमको तो हमेशा ही मजाक…. आगे वह कुछ ना बोल सकी। उसे पता था, सुरेश के आगे कुछ भी कहने का मतलब था। उससे अनचाही बहस के लिए आमंत्रित करना। और वह खुद से बोली, ना भई ना अगर वह एक बार शुरू हो गया तो मेरी खैर नहीं।
वह तो प्रश्नों की झंडी लगा देगा। अब क्या सोचने लगी नीना? कुछ नहीं, क्या तुम चाय लोगे? हाँ, पर एकदम कड़क, तुम्हारी तरह। वह अपनी हंसी रोक नहीं सकी। क्या मैं तुम्हें अब भी कड़क लगती हूँ? हाय, मेरी जान क्यों मेरे दिल पर छुरिया चलाती हो? नीना हम तो तेरे चाहने वाले हैं, तुम मानो या ना मानो। बस भी करो सुरेश। अब हम समझदार हो गए हैं।
क्या इस उम्र में ऐसी बातें हमें शोभा देती हैं? इस उम्र से तुम्हारा क्या मतलब है, नीना? अभी तो मैं जवान हूँ। अच्छा जी, पर इन बालों की सफेद का क्या करोगे, जनाब? अरे नीना, इसका भी इलाज हैं मेरे पास। सच में, उसने हैरान होते हुए कहा! कलर, तुम्हारे लिए भी ला दूँ। रहने दो, कलर का चक्कर। मुझें अपने बालों की सफेदी छुपाने की जरूरत नहीं हैं। ओह, तुम तो बुरा मान गई। छोड़ो सब कुछ, कल हमारे कॉलेज में नई टीचर आने वाली हैं। इस टीचर का नाम काफी चर्चा में हैं।
मिस मालिनी है कोई, अच्छा ऐसा क्या खास है? पहले कड़क चाय हो जाए। हाँ-हाँ मैं तो बातों-बातों में भूल ही गई थी। तुम आराम से बैठो, मैं अभी आई। वह थोड़ी देर बाद दो कप लिए किचन से बाहर आई। दोनों ने चाय की चुस्कियाँ भरी। सुरेश कुछ बताओ मिस मालिनी के बारे में, कल कॉलेज आ रही हो ना। खुद ही मिल लेना। ओह, सुरेश तुम भी कमाल करते हो। मुझें सताने में तुम्हें बड़ा मजा आता हैं। बताओ ना कुछ, हम तो हैं ही, कमाल के नीना जी। अच्छा कल मिलते हैं। मैं तुम्हें सुबह लेने आ जाऊं। नहीं-नहीं, मुझें पहले किसी काम से जाना है। मैं तुम्हें कॉलेज में ही मिलूंगी। ओके कह वह हँसता हुआ बाहर निकल गया। नीना अपने कमरे में आकर एक बार फिर अतीत में खो गई। बीस साल पहले की घटना उसकी आंखों के सामने सहज हो उठी। जब वह पहली बार इस शहर में नौकरी के लिए आ रही थी। उसके मन में कितना भय था?
नया शहर, नए लोग वह किस तरह यहाँ रह पाएगी। वह प्रतिभाशाली तो बहुत थी। पर छुईमुई सी थी। गाड़ी में दो दिन का सफर था। उसे आज भी याद है, जब स्टेशन से वह गाड़ी में बैठी थी तो माँ ने उसे खूब समझाया था। पराया शहर है, संभल कर रहना। अपना पूरा ख्याल रखना। समय पर खा-पी लेना। हॉस्टल में सब से मिलकर रहना। ठीक है, माँ मैं सब समझ गई हूँ। मैं कोई दूध पीती बच्ची नहीं हूँ। जब तक गाड़ी चल नहीं पड़ी, माँ मुझें समझाती ही रही। धीरे-धीरे गाड़ी ने अपनी रफ्तार पकड़ ली। अपना शहर पीछे छूटता जा रहा था। एक नई दुनिया मेरे सामने बाहें फैलाए खड़ी थी। गाड़ी कुछ दूर ही चली थी।
मैं अपनी प्रिय पुस्तक पढ़ने में मग्न थी। जिसका शीर्षक था “अपने सपनों की दौड़”। अगले स्टेशन पर गाड़ी पूरी तरह भर गई थी। इतने अजनबी चेहरे, मैंने एक साथ कभी नहीं देखें थे। सभी एक-दूसरे को अजीब तरह से घूर रहे थे। मैं बहुत असहज महसूस कर रही थी। गाड़ी में बहुत शोरगुल हो रहा था। सामान बेचने वाले ऊंची आवाज लगा रहे थे। तभी एक अजनबी लड़की सवारियों के पास जाकर मदद मांग रही थी। वह भीख मांगने वाली नहीं लग रही थी। पर मजबूर जरूर दिख रही थी। वह मेरे पास आकर ठहर गई, मैडम जी आप भी कुछ दे दो। मेरी माँ बहुत बीमार है। मेरा मन उसे देखकर दया से भर गया। तुम भीख क्यों मांग रही हो? क्या तुम पढ़ती हो?
वह मेरी तरफ अजीब नजरों से देख रही थी। मैंने उसके हाथ पर दस रुपये का नोट रख दिया। सभी सवारी मुझे घूर रही थी। जैसे मैंने उसकी मदद करके कोई अपराध कर दिया हो। कुछ सवारी कह रही थी। इनका तो रोज का यहीं काम हैं। ये चोर होते हैं। मैं चुपचाप उनकी बातें सुन रही थीं। जब थोड़ी देर बाद, मैंने उसे देखना चाहा। वह गाड़ी में नहीं थी। मैंने मन ही मन सोचा शायद अगले डिब्बे में चली गई होगी। गाड़ी तेज गति से चल पड़ी।
मैं खिड़की से बाहर देख रही थी। वह लड़की मुझें जाती हुई दिख रही थी। मेरी किताब भी उसके हाथों में थी। मैं बड़ी हैरान थी। उसने मेरी किताब चोरी कर ली थी। मैं उसे जाते हुए देखती रही। पता नहीं क्यों मेरा मन उस मासूम सी लड़की को देखकर दया से भर उठा था। गाड़ी की गति बढ़ती जा रही थी। अब गाड़ी तेज गति से दौड़ रही थी। कुछ लोग मुझें अब भी घूर रहे थे। कुछ कह भी रहे थे, आपका कुछ सामान तो नहीं ले गई। मैंने ना में सिर हिला दिया। मुझें इस बात का अहसास था। अगर उन्हें चोरी के बारे में कुछ भी बताया तो भविष्य में वह किसी पर भी भरोसा नहीं करेंगे। मैं थोड़ी देर अपनी किताब के बारे में सोचती रही। फिर यह सोच कर शान्त हो गई कि शायद इस किताब से उसका कुछ भला हो जाए।
रोज की तरह सुबह जल्दी उठी सबसे पहले भगवान के चरणों में सिर झुकाया। जो मेरी वर्षों से चली आ रही आदत थी। तैयार होकर कॉलेज के लिए निकल पड़ी।सफर में मेरे सामने बैठी उस सुंदर लड़की के बारे में, सोच कर मैं बार-बार रोमांचित हो रही थी। कितनी सुंदर थीं, वह लड़की। परी की तरह कोमल, गहरी आंखों वाली। उसका रूप-सौंदर्य तो मेरे मन-मंदिर में पूरी तरह बस गया था। दो ही चेहरे मुझें अपनी ओर खींच रहे थे। वह छोटी मासूम लड़की और यह सुंदर कोमल लड़की। इन्हीं विचारों में डूबी में कॉलेज में पहुंच गई। चपरासी ने मुझें सीधे हाल में जाने को कहा। मैं हॉल की तरफ चल पड़ी। हॉल विद्यार्थियों से खचाखच भरा पड़ा था। मैं जाकर पहली वाली पंक्ति में बैठ गई। स्टेज पर नई टीचर को बुलाया जा रहा था।
मैं मालिनी नाम सुनकर हैरान रह गई। यह वही लड़की थी, जो कल सफर में, मेरे सामने वाली सीट पर बैठी थी। वह मेरी तरफ ही देख रही थी। उसने स्टेज पर बोलना शुरु किया। मेरा नाम मालिनी है, यह मेरा सौभाग्य है, जो मुझें इस कॉलेज में पढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ हैं। मैं विशेष तौर पर नीना जी का धन्यवाद करना चाहती हूँ। उन्हीं के कारण, आज मैं आप सभी के समक्ष खड़ी हूँ। वरना सारी जिंदगी गाड़ियों में भीख मांगती रहती। पूरा कॉलेज हैरान था, इसमें हैरानी की कोई बात नहीं हैं। वर्षों पहले मैं गाड़ियों में भीख माँगती थी। मैंने नीना जी से की भीख मांगी थी। उन्होंने मुझें दस रुपये का नोट भी दिया था।
कुछ रुक वह बोली, मैंने अपनी जिंदगी में, एक ही बार चोरी की थी। नीना जी, की किताब उठा ली थी। वहीं से मेरी पढ़ाई में रुचि पैदा हुई। मैंने खूब मन लगाकर पढ़ाई की। मैं उस किताब को बार-बार पढ़ती थी। उसमें नीना जी का पूरा पता भी था। उनकी एक सुंदर तस्वीर भी थी। जो मुझें हमेशा प्रेरित करती थीं।
नीना जी, क्या आप मुझें उस चोरी के लिए माफ कर सकती हैं? मेरे कदम खूब ब खूब स्टेज पर चल पड़े। मैंने उसे गले से लगा लिया। मैंने तो तुम्हें उस दिन माफ कर दिया था। पर मुझें हमेशा तुम्हारा चेहरा याद आता था। सच में, नीना जी। हाँ, बिल्कुल सच। आप सभी के सामने बताइए, आप मुझें कैसे याद करती थी?
“वह गाड़ी वाली लड़की” सभी ने खूब तालियां बजाई। मालिनी ने नीना जी के चरण स्पर्श किए। नीना जी, क्या यह गाड़ी वाली लड़की अपनी प्रेरणा, मार्गदर्शिका के पास रह सकती है, जरूर। मालिनी के हाथों में अभी भी वही किताब थी।
परिचय : राकेश कुमार तगाला
निवासी : पानीपत (हरियाणा)
शिक्षा : बी ए ऑनर्स, एम ए (हिंदी, इतिहास)
साहित्यक उपलब्धि : कविता, लघुकथा, लेख, कहानी, क्षणिकाएँ, २०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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