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अल्प जरूरतें सागर सी

विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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अल्प जरूरतें सागर सी, इतनी भी आसान नहीं
राई को परबत सा मान, भ्रम का समाधान नहीं।

बच्चों को खेल-खेल में, चंदा ख्वाहिश होती है
चाँद सितारे पाने में, काया-कल्प ही होती है

जटिल राह के राही को, समझो तुम नादान नही
अल्प जरूरतें सागर सी, इतनी भी आसान नहीं

राई को परबत सा मान, भ्रम का समाधान नहीं।
भाव शब्द भंडार से, जीवन शैली अति सरल है

कब कहाँ कैसे क्या, परख होती नहीं गरल है
आनेवाली हर विपदा, खुद की है मेहमान नहीं

अल्प जरूरतें सागर सी, इतनी भी आसान नहीं
राई को परबत सा मान, भ्रम का समाधान नहीं।

गणित सदा है सूत्रधार, समीकरण तो बराबर हो
जीव भौतिकी रसायन, कुछ भी नहीं सरासर हो

परिवार समाजलाभ तो, पुरुष से है परिधान नहीं
अल्प जरूरतें सागर सी, इतनी भी आसान नहीं

राई को परबत सा मान, भ्रम का समाधान नहीं।
परिवर्तन नाम प्रकृति है, मानव भी ये ख्याल रखे

युग-युग होता आया, रण और शांति स्वाद चखे
परिवर्तन जग के सृष्टा, राम प्रधान अंतर्ध्यान सही

अल्प जरूरतें सागर सी इतनी भी आसान नहीं
राई को परबत सा मान, भ्रम का समाधान नहीं।

गुण धर्म व्यवहार सदा, करता है विश्वास निर्माण
भय भूल भ्रांति भूख से, मिले नहीं विश्वास प्रमाण

विश्वास पैमाना परस्पर,स्वयं केवल प्रधान नहीं
अल्प जरूरतें सागर सी, इतनी भी आसान नहीं

राई को परबत सा मान, भ्रम का समाधान नहीं।
‘अटल’ विश्वास बल पर, इतिहास बना भारत का

सियाचिन युद्ध ‘विजय’ से, सम्मान बढ़ा भारत का
उत्थान का सूचक बनता, मानो हिंदुस्तान सही

अल्प जरूरतें सागर सी, इतनी भी आसान नहीं
राई की परबत सा मान, भ्रम का समाधान नहीं

परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़

उद्योगपति :१९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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