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मेरे बटुए भर सपने

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उ.प्र.)
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जीवन के कुछ पल मैं
जीवन से ही चुराती गई
उन्हें अपने बटुए में सहेजती रही
ये सोच कर की कभी
समय मिले तो उनको
सुकून से खर्च करूंगी।

बस यही सोच कर,
समय और हालत
के साथ आगे बढ़ती रही
वक्त के साथ बटुए की
सियान कमजोर पड़ती रही
और मैं समय समय पर
उन्हें यूं ही सिलती रही,
फिसलते रहे मेरे सपने
और समय समय की खुशियां
मैं समाचार पत्र की तरह
उन्हें सहेजती रही
बरसों से सहेजे बटुए को
मैने एक दिन जो खोला

पूरी जगह तो सूनी
और कोरी पड़ी थी
वो समय के पल तो
कहि थे ही नही
जिनको मैं वर्षों से
सहेजती आई थी
कहां गई वो मेरी संपत्ति
जो पाई पाई मैं जोड़ती रही थी?
सोचते हुए आईने पर नजर पड़ी,
सिर पर सफेद बालों की
सफेदी चमक रही थी
चेहरे पर इतनी सिलवटें?
आईने ने खुद को पहचानने से
इंकार कर दिया,
पीछे घूम के देखा,
कहीं किसी को नही पाया
थी तो मैं ही!!! मगर
ना जाने खुद की पहचान
कैसे खोती चली गई
मेरे हिस्से के सपने भरी वसीयत,
बटुए से ना जाने
कैसे सरकते चले गए?

परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी
जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी
शिक्षा : एम. ए.,एम.फिल – समाजशास्त्र,पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार)
निवासी : लखनऊ (उ.प्र.)
विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक ने लेखन की प्रेरणा दी और विगत ६-७ वर्षों से अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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