
अनूप कुमार श्रीवास्तव “सहर”
इंदौर मध्य प्रदेश
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रूप का जादू होतुम जादुई मिज़ाज है
कितनें दर्पन तरसतें आपके श्रृंगार को।
गीत इतनें वावलें नमन के लिए
किस विरही वेदना के उपहार को।
मूक हो जाता मौसम यूं कैसीं छटा
इंद्र धनुषीं परिकल्पना मनुहार को।
एक तुम अनभिज्ञ सीं अंजान सीं
एक ये विवशता मन में उदगार को।
देर तक नींदे लुटाई दोनों ने दोनों तरफ
बाद में इलज़ाम आया तन्हा दीवार को।
उस दिन भी सहमें बादल थें नयन में
अश्रु पूरित क्षण मिलें थें पुरस्कार को।
मूक हो जाता मौसम यूं कैसीं छटा
इंद्र धनुषीं परिकल्पना मनुहार को।
एक तुम अनभिज्ञ सीं अंजान सीं
एक ये विवशता मन में उदगार को।
देर तक नींदे लुटाई दोनों ने दोनों तरफ
बाद में इलज़ाम आया तन्हा दीवार को।
उस दिन भी सहमें बादल थें नयन में
अश्रु पूरित क्षण मिलें थें पुरस्कार को।
इश्क़ किस तरंह से सर चढ़ता है
सौंप दी आशिकी जैसें बुखार को।
शराब भरती जा यूं साकी पैमाने में
कोई तो पूछता है गजलख्वार को।
आदमीयत बेहतर तो तब लगेगीं
इंसानियत ओढेंगीं जब किरदार को।
निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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