डॉ. सर्वेश व्यास
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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अपने मित्र के व्हाट्सएप स्टेटस पर प्रथम बार गीत सुना “मुझे तु राजी लगती है जीती हुई बाजी लगती है” प्रेम का यह स्वरूप जब देखा तो लगा हम यह कहां आ गए? जिस प्रेम की पराकाष्ठा भक्ति है, जो प्रेम उस निर्गुण निराकार परमात्मा को सगुण साकार स्वरूप में धारण करने के लिए विवश कर देता है, वह एक हार जीत की बाजी हो गया। मेरे विचारों में यह प्रेम का सबसे विकृत रूप है। प्रेम तत्व मे तो दो होता ही नहीं है, प्रेम की पराकाष्ठा एक तत्व में विलीन हो जाना है और यदि प्रेम मे जब द्वेत भी होता है तो उस में समर्पण होता है, त्याग होता है, हारना होता है। प्रेम की किताब में या प्रेम के जगत में “जो जीता है वास्तव में वह तो हार ही गया है और जो हारता है वही वास्तव में जीता है” किसी शायर ने क्या खूब कहा है “जो डूब गया सो पार गया, जो पार गया सो डूब गया” आज की युवा पीढ़ी को जो कि प्रेम को भोग समझ बैठी है, वह प्रेम को जीतना चाहती है, पाना चाहती है जब वह प्रेम को प्राप्त नही कर पाती या पाकर खो देती है तो उसे अपनी हार समझ बैठती है और छद्म प्रेम की एक विकृति के रूप में समाज के सामने आती है। जो कि वास्तव में वह कामनाओं का विकृत और निम्नतम रूप होता है वास्तव मे वह प्रेम होता ही नहीं और समाज में प्रेम बदनाम हो जाता है जबकि वह भोग वासना का विकृत रूप होता है और लोग उसे प्रेम का नाम दे देकर बदनाम कर कर देते है l प्रेम में विचारों की पवित्रता होती है, पावनता होती है, सृजनात्मकता होती है, प्रेम मे ना तो किसी और को और ना ही स्वयं को हानि पहुंचाने की चेष्टा होती है। आज की युवा पीढ़ी में प्रेमी या प्रेमिका ने प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया तो उसे हानि पहुंचाने की चेष्टा की जाती है या प्रेमी या प्रेमिका नाराज हो जाए तो अपनी जीवन लीला समाप्त करने की चेष्टा की जाती है। यह तो प्रेम का विकृत रूप है या यूं कहूं ये तो प्रेम है ही नहीं यह तो आपकी कामनाओं में विघ्न है आपके भोग में विघ्न है जिसकी परिणति आप दूसरे को या स्वयं को हानि पहुंचा कर करते हैं। प्रेम ना तो अंधा होता है और ना ही मीठा जहर है, प्रेम मे अपने कर्तव्यों का भान रहता है और प्रेमी दूसरे लोगों की अपेक्षा ज्यादा तल्लीनता से अपने कर्तव्यों का समाज के प्रति, परिवार के प्रति निर्वहन भी करता है। राधा ने कृष्ण से प्रेम किया कितना पवित्र। मथुरा बरसाने से कोई ज्यादा दूर नहीं थी l इन दोनों ने अपनी मर्यादाओं का पालन किया। श्री कृष्ण मथुरा के शासक होने के बावजूद राधा से मिलने बरसाने कभी नहीं गए और ना कभी राधा मथुरा गई। दोनों अपने अपने कर्तव्यों का पालन करते रहे। इसके अलावा मीरा ने कृष्ण को ऐसा प्रेम किया कि एक पल के लिए भी लगा ही नहीं कि वह अपने प्रेमास्पद् से दूर है। वह हर घडी हर पल उन्हे अपने पास पाती थी और अंत में सशरीर श्री कृष्ण में समा गई। रुक्मणी ने कभी कृष्ण को देखा नहीं, बस उनके गुणों को, उनके विचारों को सुनकर उनके प्रति समर्पित हो गई। जब हम किसी का रूप, सौंदर्य, वैभव, पद, प्रभाव देखकर उसकी तरह आकर्षित होते हैं तो वह कहीं न कहीं भोग होता है, कामना होती है वह प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम में तो बस पवित्र हृदय होता है, जो समर्पण से, श्रद्धा से प्रेमास्पद् की और चला जाता है। उसके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता, जहां प्रयास है वहाँ प्रेम नहीं, प्रेम में तो प्रवाह है जिसने बहना है। समर्पण है, त्याग है। प्रेम को विकृति प्रदान करने में बाजारवाद की भी बड़ी भूमिका रही है, वैलेंटाइन डे के नाम पर सप्त दिवसीय उत्सव मनाया जाता है जो कि एक गुलाब से प्रारंभ हो कर चुंबन दिवस या आलिंगन दिवस पर खत्म होता है। जिसमें शुरू से अंत तक बाजारवाद है, कभी चॉकलेट के रूप में तो कभी टेडी के रूप में, बस उपहारों की एक श्रृंखला है और अंत मे चुंबन या आलिंगन के रूप में भोग है l जबकि वास्तविक प्रेम में प्रपोज होता ही नहीं है, बस किसी के प्रति समर्पण होता है, भाव से भरा हृदय होता हैं जो प्रेमास्पद् को सौंप दिया जाता है। उसके बदले यह अपेक्षा नहीं की जाती कि प्रेमास्पद् हमारे प्रस्ताव को स्वीकार करें, प्रेम के बदले प्रेम दे या वह भी हमे हृदय सोपे। बस प्रेम, प्रेम है उसे महसूस किया जाता हैं वह भी हर पल, हर समय, हर सांस में महसूस किया जाता है। किसी ने सच ही कहा है ” सिर्फ एहसास है यह, रूह से महसूस करो प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो ” हमारे एक मित्र है – दास सर वह अपनी सहकर्मी गीता मैडम से प्रेम करते थे, उनका खुद से भी ज्यादा ख्याल रखते थे लेकिन उन्होंने कभी भी अपने प्रेम को प्रदर्शित नहीं किया और ना ही जताया और ना ही कभी अपेक्षा की कि गीता मैडम भी उनके प्रति प्रेम भाव रखे। कई बार हमने कहा कि आप अपने मन के विचारों को मैडम के सम्मुख रखो तो सही, लेकिन वे कहते कि अगर मेरा समर्पण सच्चा है, मेरे भाव शुद्ध है तो मैडम खुद ही समझ जाएंगे आखिर एक दिन मैडम जान गए और मैडम ने दास सर से पूछा क्या यह सच है? सर ने हां कहा, मैडम ने उसी दिन से बात करना बंद कर दी, मोबाइल नंबर ब्लॉक कर दिया। कहीं महीनों तक कोई बात नहीं हुई, लेकिन दास सर ईमानदारी से हर पल समर्पित भाव से उनके लिए और उनके प्रति जीते रहे। हमने कई बार कहा कि जब सामने वाले के हृदय में कोई भाव नहीं है तो छोड़ो, तो उन्होंने एक ही जवाब दिया कि मुझे जब प्रेम हुआ था तो यह शर्त नहीं थी कि उन्हें भी होगा। वह अपने हृदय की सुने और उसके अनुसार काम करें और मैं अपने हृदय की सुनकर अपना काम कर रहा हूँ। प्रेम में अगर लेनदेन हो कि एक हृदय के बदले दूसरा हृदय दिया जाए या लिया जाए तो व्यापार हो जाएगा मैंने व्यापार नहीं किया है प्रेम किया है l वह बंदा उनसे दूर रहकर उनके प्रति आज भी अपने हृदय में भाव संजोए जी रहा है l वह कहता है कि मुझे तो एक पल भी ऐसा नहीं लगता है कि वह मुझसे दूर है वह तो हर पल हर घड़ी हर सांस में मेरे साथ हैं। यह है प्रेम का वास्तविक स्वरूप जिसमें न तो जीत है ना हार है बस भाव ही भाव है। तभी तो प्रेम के वशीभूत होकर कभी राम शबरी के जूठे बेर खाते हैं, तो कभी श्याम अर्जुन का रथ चलाते हैं, कभी सृष्टि के पालन कर्ता विष्णु बलि के यहां चौकीदार बनते हैं, तो कभी तीनों देव अनुसूया के यहां बालक रूप में पालने में झूलते हैं। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। तभी तो सूरदास कहते हैं “सबसे ऊंची प्रेम सगाई” और कबीर कहते हैं ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय”। अतः आज की इस युवा पीढ़ी को प्रेम के इस वास्तविक स्वरूप से अवगत करवाना अत्यंत आवश्यक है ताकि वह प्रेम के रूप में भोग के विकृत रूप को ग्रहण कर समाज के लिए खतरा न बने बल्कि प्रेम के वास्तविक स्वरूप को जानकर समाज के सृजक एवं सुसंस्कृत भावी पीढ़ी के रूप में अपने आप को स्थापित कर सके।
परिचय :- डॉ. सर्वेश व्यास
जन्म : ३० दिसंबर १९८०
शिक्षा : एम. कॉम. एम.फिल. पीएच.डी.
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
लेखन विधा : व्यंग्य, संस्मरण, कविता, समसामयिक लेखन
व्यवसाय : सहायक प्राध्यापक
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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