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अजब है जलसा ये मुल्क में

मुकेश सिंघानिया
चाम्पा (छत्तीसगढ़)

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अजब है जलसा ये मुल्क में सब तरफ ही जगमग सा हो रहा है
मगर वो माटी के घर में माटी का दीप हालत पे रो रहा है/१

नसीब इन बिजलियों की देखो लिबास है कांच के बदन पर
उधार की जगमगाती रौनक में डूब कर मन भी खो रहा है/२

ये झिलमिलाती सी दीप माला में एक दीपक जला अकेला
चुनौतियां दे रहा अंधेरों को अपनी धुन का ही वो रहा है/३

मगन है दुनिया तो मस्तियों में किसे है परवाह कहाँ हुआ क्या
खबर पड़ोसी को भी हुई ना बगल वो भूखा क्यूँ सो रहा है/४

वो बेसहारा यतीम हसरत भरी निगाहों से है निहारे
सजा है बाजार हसरतों का बेचारा सपने संजो रहा है/५

रवायतें है गरीब खातिर अमीर के मौज का है जरिया
ये तीज त्योहार बन के आफत ही झुग्गियों को भिगो रहा है/६

जरूरतें कौन सी निभाए किसे वो छोड़े किसे भुलाए
उधेड़बुन में यही वो कितनी ही हसरतों को भी ढो रहा है/७

तरस रही हैं उजाले खातिर न जाने कितनी ही बस्तियां भी
न जाने सूरज कहाँ उगा है कहाँ उजाले वो बो रहा है/८

शहर की मशरूफियत से हट कर है सादगी का सुहाना मंजर
गंवार कहती हैं जिसको दुनिया वो गांव तहज़ीब ढो रहा है/९

कहां रही अब वो रौनकें भी कहां वो पहले से दिन रहे अब
बदलते मौसम में अब ये रस्मों रिवाज पहचान खो रहा है/१०

हुए मुलाकात बरसों बीते कुछ अपनो से हम जो कल थे बिछड़े
कोई बहाने न काम आये उदास मन भर के रो रहा है/११

बिछे हुए फूल मंदिरों में बिखर रही खुश्बूएं फिजा में
मिले हैं कांटे बेचारगी को कदम कदम बस चुभो रहा है/१२

परिचय :- मुकेश सिंघानिया
निवासी : चाम्पा (छत्तीसगढ़)
शपथ : मेरी कविताएँ और गजल पूर्णतः मौलिक, स्वरचित हैं


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