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किसको दर्पण दिखा रहा हूं

अख्तर अली शाह “अनन्त”
नीमच

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कहता हूं नाचीज स्वयं को,
रुतबा कितना जता रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मैं,
किसको दर्पण दिखा रहा हूँ।।

मैं किस खेतकी मूली हूं जो,
अपना भाव बढ़ाया मैंने।
कोल्हू का हूँ बैल फकत मैं,
पका पकाया खाया मैंने।।

क्यों हजार का नोट बना मैं,
भार बदन का बढ़ा रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मैं,
किसको दर्पण दिखा रहा हूँ।।

अपनी मर्जी से ना जन्मा,
नहीं मरण हाथों में मेरे।
क्यों अंगारे उगल रहा हूँ,
हैं अंधियारे मुझको घेरे।।

क्यों घमंड है इतना मुझको,
क्या सूरज का सगा रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मैं,
किसको दर्पण दिखारहा हूँ।।

खुद अपनीतारीफ करूं क्यों,
क्या चरने को अकल गई है।
गंदे कतरे से यह जीवन,
है लोगों क्या बात नई है।।

क्यो आकाश उठाके सिर पे
सबको उल्लू बना रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मैं,
किसको दर्पण दिखा रहा हूँ।।

उंगली पकड़ेबिना चला कब,
कंधों पर ले जाए कोई।
भूख पेट को जबजब लगती,
खाना मुझे खिलाए कोई।।

नाम लिखा दाने -दाने पर,
मैं क्यों दानी कहा रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मै,
किसको दर्पण दिखा रहा हूँ।।

क्यों अभिमान मुझे डसता है,
क्यों “अनंत” छलती है माया।
मैं खाकी हूँ, नाशवान हूँ,
क्योंये अबतक समझनपाया।।

मैं हूँ फकत भीड़ का रेला,
रब की ढपली बजा रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मैं,
किसको दर्पण दिखा रहा हूँ।।

परिचय :- अख्तर अली शाह “अनन्त”
पिता : कासमशाह
जन्म : ११/०७/१९४७ (ग्यारह जुलाई सन् उन्नीस सौ सैंतालीस)
सम्प्रति : अधिवक्ता
निवासी : नीमच जिला- नीमच (मध्य प्रदेश)


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