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जंगल वाली सोच

भीमराव झरबड़े ‘जीवन’
बैतूल मध्य प्रदेश

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हुआ पाशविक हृदय आचरण, मनुज रहा अब नोच।
इस मिट्टी में उग आई है, जंगल वाली सोच।।

आसमान में नाच रहा है, प्रजातंत्र कनकौआ।
डोर थमी है जिन हाथों में, बाँटा उसने पौआ।।
नव विहान का सौदा करके, सौंप गया निम्लोच।
उग आई है इस मिट्टी में…… (१)

रोज मुनादी करते टी वी, माॅडल से इठलाकर।
हवा आजकल बाँट रही है, खुश्बू घर-घर जाकर।।
लगे शिकंजे जगह- जगह पर, मांग रहे उत्कोच।
इस मिट्टी में उग आई है…… (२)

हार भूख से डाल दिये हैं, अस्त्र सभी होरी ने।
तृप्त कर दिया है जन गण को, केवल मुँहजोरी ने।।
घाट-घाट का पानी पीता, है जिसकी अप्रोच।।
इस मिट्टी में उग आई है….. (३)

अपने मंडल के सूरज ने, बना लिया परकोटा।
झूठ-मूंठ के बाँट उजाले, मोटा माल खसोटा।।
आशा लेकर नव ‘जीवन’ की, पुश्त हुई सब पोच।
इस मिट्टी में उग आई है….. (४)

निम्लोच- सूर्यास्त
पोच- निकृष्ट, बेकार

परिचय :- भीमराव झरबड़े ‘जीवन’
निवासी- बैतूल मध्य प्रदेश
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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